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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/१४ निज शुद्धभाव फल उत्तम है महामोक्ष फलदाता। जो निज स्वभाव को भजता वह शीघ्र परम पद पाता॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूर्जे हो जाऊँ भवदुख विरहित॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महामोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। | निज शुद्धभाव के निर्मल निज अर्घ्य बनाऊँ अनुपम । पदवी अनर्घ्य पाने में हो जाऊँ हे प्रभु सक्षम ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित। मैं मुख्य अष्टगुण पूजू हो जाऊँ भवदुख विरहित॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. । अर्ध्यावलि (छंद - ताटक) ज्ञान अनंत महा महिमामय परम श्रेष्ठ है परम विशाल। युगपत् लोकालोक जानता एक समय में तीनों काल॥ सकल द्रव्य गुण पर्यायों को दर्पणवत् लेता है जान । रहित ज्ञान आवरण ज्ञान गुण अर्घ्य चढ़ाऊँ हे भगवान ॥ ॐ ह्रीं अनंतज्ञानगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। गुण अनंत दर्शन की महिमा से शोभित हैं सिद्ध महंत। लोकालोक तीन काल का दृष्टा दर्शन गुण भगवंत ॥ मैं अनंत दर्शन गुण को ही अर्घ्य चढ़ाऊँ हे भगवान । रहित दर्शनावरणी केवल दर्शन पाऊँ महामहान । ॐ ह्रीं अनतंदर्शनगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्य निर्वामीति स्वाहा। गुण अनंत सुख महिमा मंडित अव्याबाधी सुख का स्रोत। सादि अनंतानंत काल तक निज शिवसुख से ओतप्रोत ॥
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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