SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमार्थवचनिका प्रवचन 56 को अज्ञानी जानता नहीं और देहादि की क्रिया अथवा शुभराग को ही वह अपना व्यवहार मानता है तथा उसे ही मोक्षमार्ग समझता है; ऐसे व्यवहार में (राग व देह की क्रिया में ) मग्नजीव मोक्षमार्ग को कैसे साध सकेगा? अज्ञानीजीव शुद्धपरिणतिरूप व्यवहार को तो जानता नहीं और रागादि अशुद्धव्यवहार को मोक्ष का कारण मानता है - यह तो मूढ़ता है। मूढ़जीव ही ऐसे रागादि अशुद्धभाव से अपने को मोक्षमार्ग का अधिकारी मानता है – ऐसा लगभग ४०० वर्ष पहले पण्डित बनारसीदासजी स्पष्ट लिख गए हैं और परम्परा से तो यही बात अनादि से ज्ञानी सन्त समझाते आये हैं। भाई ! तुझे राग का तो अनादि से परिचय है, इसलिये राग की बात तुझे सुगम लगती है। जब कोई राग को मोक्षमार्ग कह दे तो वह बात तेरे हृदय में झट बैठ जाती है, किन्तु वह राग मोक्षमार्ग नहीं है। मोक्षमार्ग तो अध्यात्मपद्धतिरूप है, आत्मा के आश्रय से होने वाली शुद्धचेतनापरिणति ही मोक्षमार्ग है; उसके द्वारा ही मोक्ष सुगमता से मिल सकता है, अतः वही सरल मार्ग है - सच्चा मार्ग है। इसके अतिरिक्त अन्य मार्ग से मोक्ष प्राप्ति दुर्गम है, अशक्य है। शुद्धरत्नत्रयरूप जो 'निश्चय मोक्षमार्ग' है, उसी को यहाँ आत्मा का 'शुद्धव्यवहार' – कहा है। प्रवचनसार में भी 'शुद्धचेतनाविलासरूप आत्म व्यवहार' ऐसा कहा है, वह निर्मलपर्याय की ही बात है। यहाँ उसकी पहचान 'अध्यात्मपद्धति' कहकर कराई है। इसप्रकार भिन्न-भिन्न अनेक शैलियों में भी मोक्षमार्ग की मूलधारा समानरूप से प्रवाहित होती चली आ रही है। 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः' – ऐसा कहा, उसमें भी यही आशय है। सभी सन्तों के बताये हुये मोक्षमार्ग का स्वरूप एक जैसा ही है। कहा भी है - " एक होय त्रयकाल में, परमारथ का पंथ । " प्रश्न - यदि शुद्धपर्याय मोक्षमार्ग है, जैसा कि ऊपर कथन किया तो फिर पर्याय को अभूतार्थ कहकर छोड़ने के लिए क्यों कहते हो ? —
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy