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ज्ञानी और अज्ञानी
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मोक्षमार्ग को साधना वह नहीं जानता। बाहर की क्रिया और शुभराग में तो मोक्षमार्ग है नहीं।
यहाँ तो पण्डित बनारसीदासजी स्पष्ट कहते हैं कि बाह्यक्रिया करता हुआ मूढजीव अपने को मोक्षमार्ग का अधिकारी मानता है। वह अकेली अशुद्धपरिणतिरूप आगमपद्धति को व्यवहार कहता है और अध्यात्मपद्धति के व्यवहार को अर्थात् शुद्धपरिणतिरूप व्यवहार को पहचानता ही नहीं; किन्तु भाई! अशुद्धपरिणति कहीं मोक्षमार्ग का व्यवहार नहीं है, वह तो अशुद्ध व्यवहार है। मोक्षमार्ग में तो मिश्ररूप व्यवहार कहा है अर्थात् किंचित् शुद्धता और किंचित् अशुद्धता – ऐसी मिश्रपरिणति मोक्षमार्ग में होती है, यही मोक्षमार्ग का व्यवहार है। ऐसे व्यवहार को अज्ञानी जानता नहीं। वह तो अध्यात्मपद्धति (शुद्धपरिणति) को निश्चय और आगमपद्धति (अशुद्धपरिणति) को व्यवहार मानता है तथा एकान्त आगमपद्धति को अर्थात् शुभराग और बाह्यक्रिया को मोक्षमार्ग मानता है। ___ भाई! निर्मल परिणति भी व्यवहार है। जितनी शुद्ध-परिणति है उतना शुद्धव्यवहार है, वह अध्यात्मपद्धति है; उसके बिना मोक्षमार्ग होता नहीं। शुभराग की स्थूल क्रिया अज्ञानी को बाहर में दिखाई देती है, अतः उसकी बात शीघ्र समझ जाता है अर्थात् उसे ही मोक्षमार्ग मान लेता है। बाहर की रागक्रिया में अटके हुए जीवों को अन्तर की शुद्धपर्यायरूप मोक्षमार्ग सूझे ही कहाँ से? अन्तर्मुख अध्यात्मपद्धति और बहिर्मुख आगमपद्धति अर्थात् शुद्धता और अशुद्धता – इन दोनों की भिन्नता को जो पहचानता नहीं तथा मोक्षमार्ग व संसारमार्ग - इन दोनों के भेद को जो जानता नहीं, वह भला मोक्षमार्ग को कैसे साधेगा? अध्यात्मपद्धति और आगमपद्धति इन दोनों की भिन्नता का ज्ञाता ही मोक्षमार्ग का साधन कर सकता है। ___ अभेदद्रव्य, वह निश्चय और उसकी शुद्धपर्याय, वह व्यवहार है। शुद्धपरिणति, वही शुद्ध-आत्मव्यवहार है; ऐसे शुद्ध निश्चय-व्यवहार