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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन पर्याय के भावप्रमाण सम्पूर्ण द्रव्य को भी वैसा ही कहना - यह निश्चय है। तात्पर्य यह है कि शुद्धपर्याय से परिणमित आत्मा को शुद्धनिश्चय, शुद्धाशुद्धपर्याय से परिणमित आत्मा को मिश्रनिश्चय तथा अशुद्धपर्याय से परिणमित आत्मा को अशुद्धनिश्चय कहा है। श्री प्रवचनसार शास्त्र में भी यह बात ली गई है। प्रवचनसार की आठवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो॥८॥ द्रव्य जिससमय जिसभावरूप से परिणमन करता है, उससमय वह उससे तन्मय है - ऐसा जिनेन्द्रभगवान ने कहा है; इसलिए धर्म-परिणत आत्मा को धर्म समझना चाहिए। __ अहो! कुन्दकुन्दाचार्य के परमागमों में लाखों आगमशास्त्रों का मूल समाविष्ट है। विशेषरूप से यहाँ यह कहा गया है कि जहाँ तक संसार अवस्था है, वहाँ तक व्यवहार है, सिद्धों के व्यवहार नहीं है। अर्थात् संसार है, वही व्यवहार है और व्यवहार है, वही संसार है - इसप्रकार संसार व व्यवहार दोनों को एकरूप कहा है। संसारी सो व्यवहारी और व्यवहारी सो संसारी। इस विषय को जानने से यह समझना चाहिए कि जो जीव व्यवहार का अवलम्बन करता है, वह वास्तव में संसार का ही अवलम्बन करता है। अज्ञानी जीव व्यवहार व्यवहार करता है और उसके अवलम्बन से धर्म मानता है। परन्तु यहाँ तो ४०० वर्ष पूर्व आगमाभ्यासी पंडित बनारसीदासजी कहते हैं कि व्यवहार और संसार दोनों एकरूप हैं। जो व्यवहारी हैं, वह संसारी हैं। जो व्यवहार का अवलम्बन करता है, वह संसार में भटकता है और जो शुद्धस्वभाव (कर्मसंयोग व विकाररहित आत्मस्वभाव)
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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