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________________ जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ - 21 अशुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य कहा है और उसके साथ होनेवाली अशुद्धपरिणति को (भेददृष्टि से) अशुद्धव्यवहार कहा है। इसप्रकार अशुद्धनिश्चयद्रव्य को सहकारी अशुद्धव्यवहार का स्पष्टीकरण हुआ। इसीप्रकार साधकपर्यायरूप से परिणमित आत्मा को साधकदशा के साथ अभेद करके मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य कहा है तथा उसकी साधकबाधकपर्याय को (भेददृष्टि से) मिश्रव्यवहार कहा है। इस प्रकार मिश्रनिश्चयद्रव्य को सहकारी मिश्रव्यवहार का खुलासा हुआ। इसीप्रकार शुद्धपर्याय से परिणमित आत्मा को शुद्धपर्याय से अभेद करके शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य कहा है और उसकी शुद्धपर्याय को (भेददृष्टि से) शुद्धव्यवहार कहा है। इसप्रकार शुद्धनिश्चयद्रव्य को सहकारी शुद्धव्यवहार का वर्णन हुआ। यद्यपि संसार अवस्था में अशुद्धता व शुद्धता – दोनों के अनन्तअनन्त प्रकार हैं; किन्तु अधिक भेद न करके प्रयोजनमात्र अशुद्ध, मिश्र और शुद्ध – ऐसे तीन ही भेद किए गये हैं। इनमें ही अनन्त भेदों का समावेश हो गया है। अब निश्चय-व्यवहार का विवरण लिखते हैं : निश्चय तो अभेदरूपद्रव्य, व्यवहार द्रव्य के यथास्थितभाव; परन्तु विशेष इतना कि जितने काल संसारावस्था उतने काल व्यवहार कहा जाता है, सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं; क्योंकि संसार और व्यवहार एकरूप बतलाया है। संसारी सो व्यवहारी, व्यवहारी सो संसारी। द्रव्य-पर्याय को अभेद मानकर निश्चय कहा है और पर्याय को यथावस्थितभाव कहकर भेद करके व्यवहार कहा है। यह निश्चय तो अभेदरूप द्रव्य का स्पष्टीकरण हुआ। यहाँ शुद्धनय के विषयभूत शुद्धस्वभाव की बात नहीं है; यहाँ तो द्रव्य जिस पर्यायरूप परिणमित हुआ है, उस ,
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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