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________________ गाथा ९५ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा चोक्तं समयसारे-तथा समयसार में भी कहा है - ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ॥४६।।' (हरिगीत) परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।४६।। जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त पर-पदार्थों का 'वे पर हैं' – ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है। - ऐसा नियम से जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं। इस गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी प्रवचनरत्नाकर में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “परद्रव्य को पररूप से जाना तो परभाव का ग्रहण नहीं हुआ, वही उसका त्याग है। राग की ओर उपयोग के जुड़ान से जो अस्थिरता थी; उस ज्ञानोपयोग के ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा में स्थिर होने पर अस्थिरता उत्पन्न ही नहीं हुई, बस इसे ही प्रत्याख्यान कहते हैं । इसलिए स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है । ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई भाव प्रत्याख्यान नहीं है। ज्ञायक चैतन्यसूर्य में ज्ञान का स्थिर होजाना ही प्रत्याख्यान है।" __ आत्मा को जानना ज्ञान है और आत्मा को ही लगातार जानते रहना प्रत्याख्यान है, त्याग है, ध्यान है । प्रत्याख्यान, त्याग और ध्यान - ये सभी चारित्रगुण के ही निर्मल परिणमन हैं; जो ज्ञान की स्थिरतारूप ही हैं। अत: यह ठीक ही कहा है कि स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है ।।४६।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा समयसारव्याख्यायां- तथा समयसार की व्याख्या आत्मख्याति टीका में भी कहा है - ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है१. समयसार, गाथा ३४ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग-२, पृष्ठ ८३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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