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________________ ६४ नियमसार अनुशीलन निश्चयनय से प्रशस्त-अप्रशस्त वचन रचना के प्रपंच (विस्तार) के परिहार के द्वारा शुद्धज्ञानभावना की सेवा के प्रसाद से नये शुभाशुभ द्रव्यकर्मों और भावकर्मों का संवर होना निश्चयप्रत्याख्यान है। जो अंतर्मुख परिणति के द्वारा परमकला के आधाररूप अति अपूर्व आत्मा को सदा ध्याता है, उसे नित्यप्रत्याख्यान है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “ऐसा कहा कि व्यवहारनय के कथन से, मुनिराज प्रतिदिन भोजन करके योग्य काल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य, लेह्य की रुचि छोड़ देते हैं - यह व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप है। जिसने अन्तर में चैतन्य के आश्रय से निश्चयप्रत्याख्यान प्रगट किया है, उसी मुनि को ऐसा व्यवहारप्रत्याख्यान होता है। निश्चयनय से समस्त प्रशस्त-अप्रशस्त वचनरचना के प्रपंच के परिहार द्वारा शुद्धज्ञानभावना की सेवा के प्रसाद से जो नवीन शुभाशुभ द्रव्यकर्मों का संवर हुआ, वह प्रत्याख्यान है। आत्मा का शुद्धज्ञान त्रिकाल है; उसकी भावना के प्रसाद से जो वीतरागदशा प्रगट हुई, वही निश्चय से प्रत्याख्यान है। __आत्मा के स्वभाव में अन्तर्मुख होकर उसका ध्यान करने से ही वीतरागदशारूप परमकला प्रगट होती है। शुद्धपरिणमन में आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का आधार नहीं होता।" इस गाथा और इसकी टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा का ध्यान ही प्रत्याख्यान है; क्योंकि ध्यान अवस्था में निश्चयव्यवहार प्रत्याख्यान (त्याग) सहज ही प्रगट हो जाते हैं। ___ यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि टीका में दिने-दिने शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ स्वामीजी प्रतिदिन करते हैं ।।९५।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७६३ २. वही, पृष्ठ ७६३-७६४ ३. वही, पृष्ठ ७६४
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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