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________________ गाथा ८२ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार भेदाभ्यास करके अपने शुद्धस्वभाव में एकाग्र होना मोक्षगति का हेतु , है। इसतरह जो मोक्षाभिलाषी जीव आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान में लीन रहते हैं, वे भेदाभ्यास से मध्यस्थ रहते हैं। दृष्टि तो अखण्ड स्वभाव पर ही है, परन्तु स्वभाव में जितनी स्थिरता होती जाती है, उतना राग और भेद का आश्रय छूटता जाता है। मुझे राग टालना है और मोक्ष करना है - ऐसा विकल्प भी नहीं होता। इसप्रकार संसारपर्याय और मोक्षपर्याय के प्रति मध्यस्थ होने के कारण परमसंयमी मुनियों की वास्तविक वीतरागीदशा होती है। सहज स्थिरता बढ़ने पर भेद का भी लक्ष छूट जाता है।२ । अपने शुद्धस्वभाव के आश्रय से वीतरागीदशा प्रगट होने पर भूतकाल के दोषों से हटना प्रतिक्रमण कहा जाता है। वर्तमानकाल में शुभाशुभभाव में नहीं जुड़कर स्वभाव में ठहरना आलोचना और संवर है। यहाँ आदि शब्द से प्रत्याख्यानादि समझना चाहिए। अपने शुद्धस्वभाव में ठहरने पर भविष्य का राग उत्पन्न ही न होने देना प्रत्याख्यान है। इसप्रकार एक वीतरागीदशा ही मोक्ष का कारण है, और जितने विकल्प हैं, वे सब बंध के कारण हैं।" __गाथा, टीका और स्वामीजी के स्पष्टीकरण का सार यह है कि पंचरत्न संबंधी विगत पाँच गाथाओं में नर-नारकादि पर्यायों; मार्गणा, गुणस्थान और जीवस्थान आदि भावों; बालकादि अवस्थाओं और क्रोधादि कषायों से भगवान आत्मा का जो भेदविज्ञान कराया गया है; उससे माध्यस्थ भाव प्रगट होता है। उक्त माध्यस्थभाव से निश्चयचारित्र प्रगट होता है और निश्चयचारित्र के धारक सन्तों के जीवन में निश्चय प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान प्रगट होते हैं। प्रायश्चित्तपूर्वक भूतकाल के दोषों का परिमार्जन करना प्रतिक्रमण है, वर्तमान दोषों का परिमार्जन आलोचना है और भविष्य में कोई दोष न हो- इसप्रकार का संकल्प करना प्रत्याख्यान है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६५२ २. वही, पृष्ठ ६५२ ३. वही, पृष्ठ ६५२-६५३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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