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________________ नियमसार गाथा ८२ पंचरत्न संबंधी विगत गाथाओं की चर्चा के उपरान्त अब ८२वीं गाथा में परमार्थप्रतिक्रमणादि के बारे में चर्चा करने का संकल्प व्यक्त करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारितं । तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ।।८२ ।। ( हरिगीत ) इस भेद के अभ्यास से मध्यस्थ हो चारित्र हो । चार दृढता के लिए प्रतिक्रमण की चर्चा करूँ ॥८२॥ इसप्रकार का भेदाभ्यास (परपदार्थों से भिन्नता का अभ्यास) होने पर जीव मध्यस्थ होता है और उससे चारित्र होता है । उस चारित्र को दृढ करने के लिए अब मैं प्रतिक्रमणादि की चर्चा करूँगा । इस गाथा के भाव को टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " भेदविज्ञान से क्रमशः निश्चयचारित्र होता है - यहाँ ऐसा कहा है। पूर्वोक्त पंचरत्नों से शोभित अर्थपरिज्ञान से होनेवाले पंचमगति की प्राप्ति का हेतुभूत जीव और कर्मपुद्गलों का भेदाभ्यास होने पर उसी में स्थित रहनेवाले मुमुक्षु मध्यस्थ हो जाते हैं । इसी मध्यस्थता के कारण परम संयमियों के वास्तविक चारित्र होता है । 1 उक्त चारित्र में अविचलरूप से स्थिति रहे, इसलिए यहाँ प्रतिक्रमणादि की निश्चयक्रिया कही जा रही है । भूतकाल के दोषों का परिहार करने के लिए जो प्रायश्चित्त किया जाता है; वह प्रतिक्रमण है । आदि शब्द में प्रत्याख्यानादि का समावेश भी संभव होता है।" आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "आत्मा ज्ञाता शुद्धजीव हैं, तथा परपदार्थ अपने से पर हैं - ऐसा -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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