SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ गाथा १११ : परमालोचनाधिकार अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है। मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता। विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है। शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता।।१७०।। विविध विकल्पों वाला शुभाशुभ कर्म; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव – इन पाँच परिवर्तनोंवाले संसार का मूल कारण है – ऐसा जानकर जन्म-मरण से रहित और पाँच प्रकार की मुक्ति देनेवाले शुद्धात्मा को मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन उसे भाता हूँ, उसकी भावना करता हूँ। इसप्रकार आदि-अन्त से रहित यह आत्मज्योति; सुमधुर और सत्य वाणी का भी विषय नहीं है; तथापि गुरु के वचनों द्वारा उस आत्मज्योति को प्राप्त करके जो शुद्धदृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है। जिसने सहज तेज से रागरूपी अंधकार का नाश किया है, जो शुद्धशुद्ध है, जो मुनिवरों को गोचर है, उनके मन में वास करता है, जो विषयसुख में लीन जीवों को सर्वदा दुर्लभ है, जो परमसुख का समुद्र है, जो शुद्धज्ञान है तथा जिसने निद्रा का नाश किया है; वह शुद्धात्मा जयवंत है। गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इन छंदों का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “शुभाशुभ कर्म संसारपरिभ्रमण का मूल कारण है - ऐसा कहा, इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि जड़कर्म जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं। परन्तु ऐसा समझना चाहिए कि आत्मा के जिस भाव से शुभाशुभ कर्म बंधते हैं, उस भाव को परिभ्रमण का मूल कारण कहा है। ___ तथा स्वयं अपने स्वभाव की दृष्टि करके स्वभाव में लीन होने पर विकार छूट जाता है और पंचप्रकार के परिभ्रमण से मुक्ति मिल जाती है। इसप्रकार जानना अर्थात् अनुभव करना धर्म के आरंभ की रीति है; क्योंकि इसप्रकार शुद्धात्मा का स्वरूप जाने बिना किसकी भावना करेगा और किसमें स्थिर होवेगा? इसलिए सर्वप्रथम विकार तथा स्वभाव दोनों को बराबर यथार्थ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९३६ २. वही, पृष्ठ ९३७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy