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________________ १७४ नियमसार अनुशीलन संसार की साक्षात् मूर्ति यह शरीर पौद्गलिक स्कन्धों से बना हुआ है, इसलिए अस्थिर है; इसे छोड़कर मैं ज्ञानशरीरी सदा शुद्ध भगवान आत्मा की शरण में जाता हूँ; क्योंकि मेरे इस अनादि संसार रोग की एकमात्र अचूक औषधि शुभाशुभभावों से रहित एक शुद्ध चैतन्य भावना ही है। सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ छन्द इसप्रकार है - (मालिनी) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भवमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ।।१६८ ।। अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं नविषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टिः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६९ ।। जयति सहजतेज:प्रास्तरागान्धकारो ___ मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७० ।। (रोला) अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण। विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं। अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित। मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ||१६८|| यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति। सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है। फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर। सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते ।।१६९।।
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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