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________________ १६८ नियमसार अनुशीलन को ग्रहण नहीं करता अर्थात् वह स्वभाव से अविकृत ही रहता है। विकारी भावों को ग्रहण नहीं करता। त्रिकाली स्वभाव में तो विकार का ग्रहण है ही नहीं और उस स्वभाव का आश्रय करनेवाली पर्याय में भी विकार का संवर हो जाता है।' ___ आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव यहाँ आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आत्मा सदा अन्तरंग में अक्षय गुणमणियों का समूह है। जिसने सदा ही सहज स्वभावरूपी अमृत के समुद्र में पापरूपी कलंक को धो डाला है। चैतन्यसमुद्र में पापकलंक तो है ही नहीं। अरे जीव! ऐसे चैतन्य-समुद्र भगवान आत्मा का पहले विश्वास तो कर! विश्वास तो कर!!, क्योंकि उस चैतन्यस्वरूप में कोई कलंक नहीं है। त्रिकाली निर्मल स्वभावशक्ति की प्रतीति करने पर अर्थात् उसका आश्रय करने पर निर्मल पर्याय प्रगट हो जाती है और सदैव ही सिद्धपने परिणमन होता रहता है। एक शुद्धता नयी प्रगट होती है और दूसरी शुद्धता अनादि की है अर्थात् स्वभाव की शुद्धता अनादि की होती है और पर्याय में शुद्धता नवीन उत्पन्न हुई है। जैसे सिद्ध भगवान अनादि से ही हैं; उसीप्रकार आत्मा का स्वभाव भी अनादि से सिद्ध समान ही है। जैसे स्वरूप का आश्रय लेने पर नवीन सिद्धदशा प्रगट होती है; उसीप्रकार आत्मा की पर्याय में भी नवीन शुद्धभाव प्रगट होता है।" उक्त दोनों छन्दों में भगवान आत्मा के ही गीत गाये गये हैं। पहले छन्द में आत्मा को शम-दम आदि गुणरूपी कमलनियों का राजहंस कहा गया है। जिसप्रकार मानसरोवर जैसे सरोवरों में खिलनेवाली कमलनियों के साथ वहाँ रहनेवाला राजहंस क्रीड़ायें करता रहता है; १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२९ २. वही, पृष्ठ ९२९-९३० ३. वही, पृष्ठ ९३०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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