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________________ गाथा १११ : परमालोचनाधिकार १६७ अरे निर्मलभाव अमृत उदधि में डुबकी लगा। धोये हैं पापकलंक एवं शान्त कोलाहल किया। इन्द्रियों से जन्य अक्षय अलख गुणमय आतमा। रे स्वयं अन्तर्योति से तम नाश जगमग हो रहा।।१६३।। द्रव्यकर्म और नोकर्म के समूह से सदा भिन्न, अन्त:शुद्ध, शम-दम आदि गुणरूपी कमलनियों का राजहंस, नित्यानंदादि अनुपम गुणोंवाला और चैतन्यचमत्कार की मूर्ति – ऐसा यह आत्मा मोह के अभाव के कारण सभी प्रकार के सभी परभावों को ग्रहण ही नहीं करता। ___ जिसने अत्यन्त निर्मल शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में पापकलंकों को धो डाला है और इन्द्रियसमूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है तथा जो अक्षय अन्तरंग गुण मणियों का समूह है; वह शुद्ध आत्मा ज्ञान ज्योति द्वारा अंधकारदशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान हो रहा है। इन छन्दों के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "देखो! अन्दर से आलोचना का उत्साह उछलता होने से टीकाकार आचार्यदेव ने नौ-नौ छन्द लिख दिये हैं। साधारण जीवों को तो भावलिंगी संतों का हृदय पहिचानना ही कठिन है। ___अन्दर में स्वस्वभाव का जौर आया है, आत्मध्यान की मस्ती में झूलते-झूलते सहज छन्दों की रचना हो गयी है। अन्दर में चिदानन्द चैतन्य की धुन जमी है, उस स्वभाव की धुन में राग को भूल गये हैं - इसलिए सहजपने जो उपमा ध्यान में आ गई, उस उपमा को देकर वर्णन किया है। स्त्री आदि की उपमा दी, उसमें राग नहीं है, परन्तु स्वभाव की धुन है, स्वभाव की मस्ती में राग को तो भूल गये हैं।' आचार्यदेव कहते हैं कि स्वभाव की दृष्टि कर और पर्याय में विकार होने पर भी उसकी दृष्टि छोड़। त्रिकाली एकरूप स्वभाव में केलि करनेवाला आत्मा मोह का अभाव होने से समस्त परद्रव्य और परभाव १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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