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________________ गाथा १०५ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार १२३ इसलिए यथोचित शुद्धता सहित संसार तथा शरीर संबंधी भोगों की निर्वेगता निश्चयव्याख्यान का कारण है और भविष्यकाल में होनेवाले समस्त मोह-राग-द्वेषादि विविध विभावों का परिहार परमार्थप्रत्याख्यान है अथवा अनागतकाल में उत्पन्न होनेवाले विविध विकल्पों का परित्याग शुद्धनिश्चयप्रत्याख्यान है । " यहाँ प्रश्न संभव है कि यहाँ जो यह कहा गया है कि 'मिथ्यादृष्टि के भी चारित्रमोह के उदय के हेतुभूत द्रव्यकर्म और भावकर्म के क्षयोपशम द्वारा' - इसमें प्रश्न यह है कि मिथ्यादृष्टि को चारित्रमोह का क्षयोपशम कैसे हो सकता है ? - उक्त संदर्भ में गुरुदेवश्री कानजी स्वामी का कथन इसप्रकार है “शुद्धतारहित व्यवहारप्रत्याख्यान तो कुदृष्टि-मिथ्यात्वी पुरुषों को भी चारित्रमोह के उदय के हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म के क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है। अज्ञानी के भी पुण्य के भावरूप प्रत्याख्यान का परिणाम होता है; परन्तु वह सच्चा प्रत्याख्यान नहीं है । मिथ्यादृष्टि को कषाय की किंचित् मंदता होने पर पुण्यभाव होता है। अतः उसे स्वर्ग मिलता है, पुण्य फलता है; तथापि उससे आत्मा का कल्याण तो रंचमात्र भी नहीं होता । अज्ञानी को होनेवाली मन्दकषाय तो वास्तव में चारित्रमोह का उदय है, क्षयोपशम नहीं । निश्चय से तो वह उदय है; किन्तु व्यवहार से कुछ कषाय मंद होने से क्षयोपशम कहने में आता है । ' जैसा स्वर्णपाषाण उपादेय है, वैसा अंधपाषाण उपादेय नहीं है । ज्ञायकमूर्ति आत्मा के आश्रय से प्रगट हुआ वीतरागी प्रत्याख्यान ही उपादेय है, रागादिभाव उपादेय नहीं हैं। जिसप्रकार जिस पत्थर में से सोना निकलता है, उसे जगत स्वीकार करता है और जिस पत्थर में से सोना नहीं निकलता है, उसे जगत स्वीकार नहीं करता; उसीप्रकार संसार - शरीर के प्रति भोग का भाव तो २. वही, पृष्ठ ८५५. १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८५५
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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