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________________ नियमसार गाथा १०५ अब इस गाथा में यह बताते हैं कि निश्चयप्रत्याख्यान करनेवाले सन्त कैसे होते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - णिक्कसायस्स दान्तस्स सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे॥१०५।। (हरिगीत) जो निष्कषायी दान्त है भयभीत है संसार से। व्यवसाययुत उस शूर को सुखमयी प्रत्याख्यान है।।१०५|| जो निष्कषाय है, दान्त (इन्द्रियों को जीतनेवाला) है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसार से भयभीत है; उसे सुखमय प्रत्याख्यान होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "जो जीव निश्चयप्रत्याख्यान के योग्य हों; उन जीवों के स्वरूप का यह कथन है । जो समस्त कषायरूपी कलंक के कीचड़ से मुक्त हैं; सभी इन्द्रियों के व्यापार पर विजय प्राप्त कर लेने से, जिन्होंने परमदान्तता (जितेंद्रियपना) प्राप्त की है; सभी परीषहरूपी महासुभटों को जीत लेने से, जिन्होंने अपनी शूरवीरता प्राप्त की है; निश्चय परम तपश्चरण में निरत – ऐसा शुद्धभाव जिन्हें वर्तता है और जो संसारदुःख से भयभीत है; ऐसे सन्तों को यथोचित शुद्धता सहित व्यवहार से चार प्रकार के आहार के त्यागरूप व्यवहारप्रत्याख्यान है। दूसरी बात यह है कि शुद्धतारहित व्यवहारप्रत्याख्यान तो मिथ्यादृष्टि पुरुषों को भी चारित्रमोह के उदय के हेतुभूत द्रव्यकर्म और भावकर्म के क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है। इसीलिए निश्चयप्रत्याख्यान ही आसन्नभव्यजीवों के लिए हितरूप है। जिसप्रकार सुवर्णपाषाण उपादेय है, अन्धपाषाण नहीं; उसीप्रकार निश्चयप्रत्याख्यान ही उपादेय है, व्यवहारप्रत्याख्यान नहीं।
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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