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________________ नियमसार गाथा ७७ से ८१ उक्त गाथाओं की उत्थानिका लिखते हुए पद्मप्रभमलधारिदेव विगत और आगत – दोनों अधिकारों की संधि भी बताते हैं। कहते हैं कि विगत अधिकार में निरूपित सम्पूर्ण व्यवहारचारित्र और उसके फल की प्राप्ति से प्रतिपक्ष जो शुद्धनिश्चयपरमचारित्र है, उसका प्रतिपादन करनेवाले परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार की चर्चा आरंभ करते हैं। तात्पर्य यह है कि विगत व्यवहारचारित्राधिकार में मुख्यरूप से पुण्यबंध के कारणरूप व्यवहारचारित्र का स्वरूप बताया गया है। अब इस अधिकार में सर्वप्रकार के पुण्य-पाप के बंध से मुक्त होने का कारणभूत निश्चयचारित्र का निरूपण करेंगे। सबसे पहले पंचरत्न का स्वरूप कहते हैं। इसप्रकार अब यहाँ पाँच रत्नों का अवतरण होता है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।७७ ।। णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।७८ ।। णाहं बालो वुड्डो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ॥७९॥ णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।८।। णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।८१।। (हरिगीत ) मैं नहीं नारक देव मानव और तिर्यग मैं नहीं। कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी नहीं |७७||
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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