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________________ गाथा ७७-८१ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार जिन माधवसेन सूरि को नियमसार परमागम के टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्मरण कर रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं, संयम और ज्ञान की मूर्ति बता रहे हैं, कामगज के कुंभस्थल को भेदनेवाले कह रहे हैं और शिष्यरूपी कमलों को खिलानेवाले बता रहे हैं; यद्यपि वे माधवसेन आचार्य कोई साधारण व्यक्ति तो हो नहीं सकते, कोई प्रभावशाली आचार्य ही होने चाहिए; तथापि उनके संबंध में न तो विशेष जानकारी उपलब्ध है और न उनकी कोई कृति ही प्राप्त होती है। __ उनके बारे में जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में मात्र इतना ही लिखा है कि वे माथुर संघ की गुर्वावली के अनुसार नेमिषेण के शिष्य और श्रावकाचार के कर्ता अमितगति के गुरु थे और उनका समय विक्रम संवत् १०२५ से १०७५ के बीच का था। डॉ. नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य के भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक ग्रन्थ में भी उनके संदर्भ में कुछ नहीं लिखा गया। जो भी हो, पर वे ऐसे प्रभावक आचार्य अवश्य रहे होंगे, जिन्हें पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे अध्यात्मरसिया मुनिराज नियमसार की टीका जैसे ग्रंथ में स्मरण करें और श्रद्धापूर्वक उन्हें नमस्कार करें ।।१०८।।. जिस आत्मा को जाना है, माना है; उसी में रम जाना, समा जाना ही वस्तुतः चारित्र है। स्वयं में लीन हो जाना ही वास्तविक चारित्र है। जिसके अन्तर में यह वास्तविक चारित्र प्रकट हो जाता है, उसकी बाह्य परिणति भी सहज ही शुद्ध होने लगती है। फिर उससे अनर्गल प्रवृत्ति नहीं होती, हो ही नहीं सकती । यदि अनर्गल प्रवृत्ति हो तो समझना चाहिए कि उसे अभी अन्तर में वास्तविक चारित्र प्रकट ही नहीं हुआ है। अन्तर में वास्तविक चारित्र प्रकट हो जावे और बाह्य प्रवृत्ति अनर्गल बनी रहे, यह सम्भव ही नहीं है। ___ - सत्य की खोज, पृष्ठ ८५
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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