SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना पथ ४९ 'आत्मसिद्धि' में सब शास्त्रों का सार है । अपूर्व ग्रंथ है। इस काल में परमात्म दशा पाकर कृपालुदेव ने यह ग्रंथ लिखा है। इसमें छः दर्शन है। जिसे सद्विचार जागे उसे मोक्ष समझ में आएँ । 'कर विचार तो पाम ।' बो. भा. - : पृ. १२६ (४६) कृपालुदेव की आज्ञा में रहना । उनकी आज्ञा से आत्मा प्रगट होगी, यह दृढ़ श्रद्धा चाहिए। उनके वचनों के साक्षी, सभी ज्ञानी पुरुष हैं। त्रिकाल में यह सत्य है । जब भी ज्ञानी की आज्ञा आराधोगे, तब कल्याण होगा। त्याग वैराग्य चाहिए। जगत से उदास होना । देह से लेकर सब में उदास भाव रखना। खाने-पीने में भी जहाँ तहाँ से पेट भरना है, पेट में डालना है, ऐसा रखें। स्वाद न करें। आत्मा के लिए सब करना है । अनादि काल से देह की संभाल की है। देह में ही वृत्ति रखी है। आत्मा को नौकर बनाया है। पर यह देह आत्मार्थ में व्यतीत करें तो सभी भव का बदला हो जाएगा। यह देह तो आत्मार्थ के लिए है, साधना के लिए ही देह प्राप्त हुआ है । साध्य सिद्ध कर लेना । इस भव में दूसरी कोई ईच्छा न करना । मेरा माना है, वह अपना होने वाला नहीं । ज्ञानी की आज्ञा में ही देह व्यतीत करना है, न व्यतीत करे तो ऐसा योग मिलना मुश्किल है। मनुष्य भव दुर्लभ है। यह भव व्यर्थ न जाना चाहिए। बहुत सामग्री इकट्ठी की, तब मनुष्यभव मिला। अब समाधि-मरण के बिना सब व्यर्थ हैं। 'मुझे ज्ञानी की आज्ञा में ही इतना भव व्यतीत करना है।' यों हो तो समाधिमरण हो । कहने मात्र से न होगा। रात-दिन इसी के लिए पुरुषार्थ करना है। अनंत बार मनुष्यभव मिला, पर मोक्ष की गरज नहीं हुई, अतः आत्म विचार जगा नहीं । " दीठा नहीं निज दोष तो, तरीए कोण उपाय ?" अपने दोष न देखें तो समकित न हो। वैसा बनने का उपाय सद्गुरु है। ज्ञानी ने क्या कहा है, यह सोचता नहीं । केवलज्ञान पाने की लय लगी नहीं । मोक्ष की इच्छा हो तो सब छोड़ना पड़ेगा, छोड़े बिना न
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy