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________________ ४८, साधना पथ हैं। कृपालुदेवने सोभाग्यभाई को लिखा कि हम तुम लौकिक भाव में रहेगें तो अलौकिक भाव में कौन रहेगा? सभी को लौकिक भाव छोड़कर अलौकिक भाव में आना है। चाहे कैसा भी प्रतिबंध हो, मरण समान वेदना हो, पर आत्महित न भूलना। इस मनुष्य भव में भक्ति ही करनी है। जीव प्रमादी हो तब कर्म आते हैं। मुझे राग-द्वेष नहीं करना, ऐसा निश्चय हो तो कर्म बेचारे क्या करें? भक्ति में वृत्ति रखना और मन में 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' बोलते रहना। एक मोक्ष सिवा दूसरी कोई ईच्छा न रखना। "मात्र मोक्ष अभिलाष।" इस भव में तो यह ही करना है। 'आज्ञा में ही एकतान हुए बिना परमार्थ के मार्ग की प्राप्ति बहुत ही असुलभ है।' (श्री.रा.प.१४७) अपने कर्मानुसार आजीविका मिली, उसमें संतोष रखना, उसमें समभाव रखना। अन्य कोई विकल्प करना नहीं। “ऐसा हो तो अच्छा, वैसा हो तो अच्छा।" इस तरह न करें। सत्संग सब विकल्प को छोड़कर असंग होने के लिए करना है। (४५) बो.भा.-१ : पृ.-१२६ कृपालुदेव का उपकार महान है-अनंत दुःखों को टालने वाला हैं। ज्ञानी की आज्ञा आराधे तो जीव ज्ञानी की छत्र छाया में ही हैं। भावना सत्संग की रखने से वियोग में भी सत्संग का फल मिले। जैसा भाव वैसा फल। आत्मभावना रखना। “आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" पहले करना है, "मैं देहादि स्वरूप नहीं हूँ और देह, स्त्री, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं है, शुद्धचैतन्यस्वरूप अविनाशी ऐसा मैं आत्मा हूँ। इस तरह आत्मभावना करते हुए राग द्वेष का क्षय होता है।" (श्री.रा.प-६९२) देह पर से भाव उठे तो सब हो। “छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म।" धर्म तीन प्रकार से होता है, (१) अपने से हो, उतना ही करना। (२) अन्य के पास से करवाना। (३) यह धर्म करता है, तो अच्छा ही है। ऐसी भावना रखना। अच्छे को अच्छा जाने, तो सत्य का स्वीकार है, ऐसा कहा जाए। धर्म करते हुए को विघ्न करे तो स्वयं को अंतराय कर्म बँधता है। सरल भाव से धर्म करना है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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