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________________ साधना पथ मैं चैतन्य हूँ, शरीर मेरा स्वरूप नहीं है। मुझे रोग नहीं, शोक नहीं। उसके विकल्प नहीं करना । ये तो कर्म हैं, आकर चले जानेवाले हैं, नाशवंत हैं। मेरा नाश नहीं है। ज्ञानी ने आनंद स्वरूप देखा, वह मैं हूँ। मुझे तो बँधे हुए को छुड़ाना है, छूटना है। जिससे भी छूटा जाए, वही करना है। परभाव में जाने जैसा नहीं है। शांति मेरा धर्म है, उसे ही पाने का पुरुषार्थ करूँ, वह ही प्राप्त करूँ। यह दिखता है वह मैं नहीं, यह तो जड़ है; कुछ करने को शक्तिमान नहीं है। यह तो मेरे द्वारा देखा जाता है, समझा जाता है। मैं तो आनंदघनस्वरूप हूँ। यह भाव रहा करे, तो वह स्वरूप प्राप्त हो। दुःख-सुख आएँ, तो वह कर्म है, आएगा और जाएगा। मेरा तो एक आत्मभाव ही है और वह मेरे हाथ में हैं। यह भाव अब बँधे हुए को छोड़ने के लिए ही करना है, मुझे तो छूटना ही है। ज्ञानी का कथन मुझे मान्य है, अन्य कुछ मानना ही नहीं। आत्मा नित्य शाश्वत है। ज्ञानी का कथन न मानने से अनादि काल से जीव भटक रहा है। अब सच्चे सद्गुरु परमकृपालुदेव मिले हैं, उनका ही मान्य किया मुझे मानना है। मैं देह नहीं आत्मा हूँ, यह लक्ष्य रखकर चलना है। आत्मा को आगे रखना, याद करना, तो आत्महित हो सकेगा। (८) बो.भा.-१ : पृ.-२३ __ ज्यों ज्यों सत्पुरुष पर भाव बढ़ता है, त्यों त्यों अनंतानुबंधी कषाय मंद होता जाता है। "उसकी निष्कारण करुणा को नित्य प्रति निरंतर स्तवन करने में भी आत्मस्वभाव प्रगट होता है" (४९३)। महापुरुषों की महिमा जब भी जीव को लगेगी, तब ही गुण प्रकट होगें और दोष दूर होगें। उनके अपूर्व गुण समझ में आएँ तब जीव में अपूर्वता आती है। जगत के भाव जीव-छोड़े तो तत्त्व का प्रकाश अंदर से मिले। अतः बहिरात्मभाव छोड़कर साधकभाव से दोष दूर करके भक्ति करनी चाहिए। जीव बहिर्भाव से हटकर परमात्मा के गुणों में भाव करता रहे तो स्वयं परमात्मा बन सकता है। काया और वंचन का व्यापार बंद करके मन को अन्दर मोड़ो। अंतर्जल्परूप विकल्प बंद करें तो उपयोग आत्मा तरफ मुड़ता
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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