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________________ साधना पथ . (६) बो.भा.-१ : पृ.२१ . विशुद्धभाव अर्थात् चित्तप्रसन्नता अथवा मन की स्थिरता। कषाय मंदता में चित्त क्षोभ नहीं होता, अतः आनंद आता है। आत्मा आनंदरूप है। जब चित्तप्रसन्नता हो तब मंत्र का स्मरण करना बहुत लाभ का कारण है। कषाय का निमित्त न हो तो वैसे भाव ज्यादा समय तक टिक सकते हैं। आनंदघनजी के स्तवन में भी यही आता है :____ "चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यं रे, पूजा अखंडित एह, कपट रहित थइ आतम अरपणा रे, आनंदघन पद रेह।" (आ.-१) परमकृपालुदेव ने भी 'यम नियम' में कहा है कि ऐसे भाव मोक्ष के कारण हैं। ऐसे जीवों का निश्चय मोक्ष होना ही हैं। "पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभु से, सब आगम भेद सुउर बसें, वह केवल को बीज ज्ञानी कहे, निजको अनुभौ बतलाई दिये।" विशुद्धभाव की वर्धमानता हो, ऐसा पुरुषार्थ करना है। कर्म बीच में आएँ तो भी लक्ष यही रखना। निमित्त अच्छे रखना, क्योंकि जीव की वृत्ति निमित्ताधीन हो जाती है। यदि आत्मा में बल आए तो निमित्त कुछ नहीं कर सकते। फिर तो सहजता से परिषह सहन हो सकते हैं। अतः एकांत का सेवन अधिक करना। मन को जीतने में अठारह विघ्न-दोष ‘मोक्षमाला' में कहे हैं, वे लक्ष में रखना। बारह भावना से मन को भावित करना। दर्शनमोह जाने के बाद चारित्रमोह सहजता से दूर हो जाता है। दूसरी दृष्टि में कहा है उस अनुसार उचित वर्तन हो, तो वह उत्तम है। श्रद्धा वर्धमान हो तो वीर्य स्फुरायमान हो। श्रद्धा नींव है। । (७) बो.भा.-१ : पृ.-२२ जीव को श्रद्धा सत्पुरुष पर लानी चाहिए। स्वयं ने आत्मा देखी नहीं, पर सत्पुरुष ने देखी है और कही है, वैसी ही मेरी आत्मा है। ऐसी श्रद्धा से आत्मा को जानने की इच्छा रखें तो समय आने पर उसे आत्मदर्शन होता है। शरीर में नहीं हूँ, वह तो जड़ है; उसे जाननेवाला हूँ,
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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