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________________ साधना पथ " नहि कषाय उपशांतता, नहि अन्तर वैराग्य; सरळपणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य । " ३२ आ. सि. ये दोष निकालने का पुरुषार्थ न करें तो आत्मार्थी न बन सके। पात्रता लेकर सद्गुरु के पास जाना। पात्रता आने से ही छुटकारा होगा । वीतराग मुद्रा में दृष्टि नाक पर होती है । वह मुद्रा अपने हृदय में रहे तो द्रव्य-गुण- पर्याय का विचार आता है। दूसरी वृत्तियाँ रुकें तब भगवान का स्वरूप उसे ध्यान में आता है | दर्शनमोह मंद हो तब स्वरूपावलोकन होता है। महापुरुषों का समागम, सत्शास्त्र और सम्यक्दर्शन होने के लिए शम-संवेगादि गुणों की जिज्ञासा, यह दर्शनमोह का अनुभाग कम करने के उपाय हैं। श्री. रा. प.-८७२ (१४५) बो.भा.-२ : पृ. ३५९ मार्गानुसारी का सर्वप्रथम लक्षण न्यायसंपन्न द्रव्य उपार्जन करना है। धर्म चाहिए तो नीति की नींव दृढ़ करें। प्राण जाय पर नीति न जाएँ । मुमुक्षु को कदापि आजीविका जितना न मिले तथापि आर्तध्यान न करें। स्मरण करते, भूखे मरते सारा दिन व्यतीत करें, पर अनीति नहीं करना । मुझे धर्मध्यान करना है, मन को वश में करना है, ऐसा हो, तो नीति की प्रथम स्थापना करनी चाहिए। न्यायपूर्वक चलने से बहुत गुण प्रगट होते हैं । धर्मध्यान में मदद मिलती है । शम- संवेग आदि गुण प्रगट होते हैं। कषाय करने की आदत छूट जाती हैं। मुमुक्षु को कषाय जीतने हैं । लोभ कषाय कम होनेसे, उसके दूसरे कषाय भी कम हो जाते हैं। सद्वर्तन हो तो ज्ञानी का मार्ग परिणाम पाता है। जिस रास्ते पर ज्ञानी चलाएँ, उसी पर चलें। न्यायपूर्वक चलने से लोभ कम हो जाता है। कषाय मंद पड़े हों तो मोक्ष का मार्ग मिल सकता है। प्राण जाय पर नीति ना जाएँ। ऐसा हो उसे लोभ मंद हो और ज्ञानी परिग्रह छोड़ने को कहें तो छूट जाएँ । ज्ञानी का कहा, समझना मुश्किल है। ज्ञानी के पास जीव लोभ आदि कषाय साथ लेकर जाता है। १८७
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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