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________________ २८६ साधना पथ किसी को वृद्धावस्था के वक्त खेद होता होगा उसे कृपालुदेव ने खेद न करने के लिए पत्र लिखा होगा। 'मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ', यह मत भूल। यह भाव वृद्धावस्था में, युवावस्था में, मरते समय करें तो हो सके। परम पुरुष की दशा में वृत्ति रखना। सीधे न चल सको तो लकड़ी से चलो। उसी तरह जीव अशक्त, अबुध हो तो ज्ञानीरूप लकड़ी लेकर चलें। श्री.रा.प.-८६० (१४४) बो.भा.-२ : पृ-३५३ - वीतरागमुद्रा देखकर वृत्ति स्थिर करना। यह रूपावलोकन ध्यान है। यदि अरिहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय का विचार करें तो मोह नाश होता है। अरिहन्त के स्वरूप समान मेरा स्वरूप है। अरिहन्त का स्वरूप, अपना स्वरूप देखने का दर्पण है। दर्शनमोह घटें तो जगत असार लगता है। फिर स्वरूपावलोकन होता है। विपरीतता छूटे बाद स्वरूपावलोकन दृष्टि होती है। दर्शनमोह हो, तब तक स्वरूपावलोकन नहीं होता। ... इस के लिए महापुरुष का निरन्तर या विशेष समागम करें; जो स्वरूपावलोकन करता हो, उस के पास रहें। दूसरा सत्शास्त्र का चिन्तन, सत्समागम और सत्शास्त्र में भावना ऐसी रखना कि मैं सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए यह करता हूँ। सबका आधार गुणजिज्ञासा है, यह लक्ष्य न हो तो यह योग हुआ वह और सत्शास्त्र भी कुछ न करें। भावना जितनी बलवान हो, उतना यह साधन काम करें। साधन सीढ़ी जैसा है, भावना मंद हो तो साधन भी कुछ काम का नहीं है। सद्गुरु योग, सत्शास्त्र योग निज उल्लास वाली योग्यता से प्रवर्ते तो सम्यक्दर्शन होगा। देहदृष्टि छूट कर स्वरूपावलोकन होगा। गुणजिज्ञासा अर्थात् शम-संवेगादि गुण प्रगट करने की भावना। ऐसे गुण प्रगटें तब सम्यक्दर्शन होता है। अधिकारी बनना अपना काम है। चाहे कैसा भी योग बना हो, परन्तु ये गुण प्राप्त न हों तो योग भी अयोग है। .. .
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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