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________________ साधना पथ यह जीव बाह्य दृष्टिवाला हो तब तक जिस पदार्थ को भी देखे, उसे सच्चा मान लेता है, परंतु देखनेवाला देह में बैठा है, उसका लक्ष नहीं है। जो दिखता है, वह तो पुद्गल है। पुद्गल का आना और जाना निरंतर इस देह में होता है, परन्तु अपने को कहाँ पता लगता है? बचपन में जिन परमाणुओं का शरीर था उनमें से अब कोई भी नहीं है पर स्वंय को तो, “मैं तो हूँ। वही का वही हूँ।" ऐसा लगता रहता है। सर्वत्र पुद्गलों का सीधा उल्टा होना, नियमितरूपसे होता ही रहता है। "पुद्गल खाणो, पुद्गल पीणो, पुद्गल होंति काय, पुद्गल को सब लेणो-देणो, पुद्गल में ही जाय संतो देखिए बे परगट पुद्गल जाल तमासा।" (श्री चिदानंदजी) - प्रभुश्रीजी इस तरह बहुत बार कहते थे। पुद्गल की जाल में से निकलना बहुत विकट है। ज्ञानी का आश्रय हो, तभी छूट सकते हैं। समुद्रमें पानी होता है, उसकी भाँप वनकर बादल बनते हैं, आँखों से वह दिखते नहीं, पर बादल बनकर बरसते हैं, यह बात सत्य है। वैसे ही यह शरीर कर्मों द्वारा ही बना है और जीव कर्म की वर्गणा बाँधते रहेगा, तब तक शरीर का योग रहेगा। पुराने कर्म भोग रहे हैं और नये बाँध रहे हैं। नये कर्म न बंधे, ऐसी युक्ति यदि हाथ आ जाए तो पुराने कर्मों को भोगते आत्मा मुक्त होती जाएँ। अतः ऐसी समज लाने की जरूरत है। छोटा बच्चा बेसमझ हो, क्रोध करता हो, जिद करता हो परन्तु बड़ा होने पर समझ आ जाए तब व्यापार आदि अच्छी तरह करता है। अपलक्षण भूलकर अपना कर्तव्य संभालता है। वैसे ही यदि यह जीव सत्पुरुष की आज्ञा मानें, तो ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जा सकता है। इसीलिए यह मनुष्यभव है। दूसरे किसी भव में नहीं हो सकता। सम्यग्दृष्टि जीव भी दूसरे भव में कोई विशेष धर्माराधना नहीं कर सकते। इसीलिए मानवभव उत्तम कहा हुआ है। जिसका भाग्य पूर्ण होगा, वह सावधान हो जाएगा।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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