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________________ साधना पथ मालूम होता हैं। आत्मा सब कुछ जान सकती है, तो वह अपनी बात कैसे न जान सके? वृत्तियाँ ज्यों ज्यों शांत होती जाती हैं, त्यों त्यों स्वयं को विशेष प्रकार से समझ आती जाती है। आत्मज्ञान होनेसे पूर्व, जीवको बहुत भूमिकाओं को पार करना होता है। ज्यों ज्यों जीव ऊँची भूमिका पर आता है, त्यों त्यों उसे आनंद आता है। ___ “वीतराग कथित परम शांत रसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना।" (श्री.रा.५०५) परम शांत होना ही धर्म है और उसी का निश्चय दृढ़ता से रखकर शांत बनने का पुरुषार्थ करते रहना। प्रभुश्रीजी के उपदेश में भी यही आया है कि स्वयं को क्या हितकर्ता है और क्या विघ्नकर्ता है, वह प्रथम से ही सोच के जीवन पर्यंत सत्पुरुषार्थ करते रहना। इस मानवभव में स्वयं को क्या करना है, उसका लक्ष्य कर लें। प्रभुश्रीजी कहा करते थे कि “मत चूके चौहाण।" इस तरह वे अपने को हर वक्त जागृत रहने का उपदेश देते थे। “भरत चेत। भरत चेत।" यों बारम्बार कहा करते थे। एक व्यक्ति सो रहा हो और जगानेके लिए दो तीन आवाज़ देनेसे जाग जाता है, वैसे ही सत्पुरुष के उपदेश बारम्बार जीव को सुनने में आएँ तो जागृति बढ़ती जाएगी। अतः सत्संग करते रहने से जरूर लाभ होगा। ज्ञानीपुरुष के माहात्म्य का जीव को जब तक लक्ष न हो, तब तक आत्मा में प्रफुल्लितता नहीं आती : "अचिन्त्य तुज माहात्म्यनो, नथी प्रफुल्लित भाव; अंश न एके स्नेह नो, न मळे परम प्रभाव।" - बीस दोहे ज्यों ज्यों ज्ञानीपुरुष की जीव को पहचान आती जाती है, त्यो त्यों आत्मा तद्प बनता जाता है। पानीके नल की तरह, एक पाइप दूसरी पाइप से जुड़े और पानी एक पाइप में से दूसरी में जाने लगता है, वैसे ही आत्मा का प्रवाह तद्प होने लगता है। मात्र जुड़ने की जरूरत है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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