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________________ बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के स्वामी थे। चार करोड़ स्वर्ण खण्ड उनके कोष में जमा थे, चार करोड़ व्यापार में लगे हुए थे और शेष चार करोड़ लेन देन में थे। श्रावस्ती नगरी में उनका बहुत मान था। उनकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था जो पतिपरायणा और पति का अनुगमन करने वाली सन्नारी थी। एक बार महाश्रमण महावीर श्रावस्ती में आए। उनकी धर्मदेशना सालिहीपिता ने सुनी तो श्रावक के बारह व्रत उन्हीं से अंगीकार कर लिए। उनकी पत्नी फाल्गुनी भी बारहव्रती श्राविका बनी। अन्त में सालिहीपिता ने ग्यारह प्रतिमाएं धारण की और संलेखना। अनशन करके सुखद मृत्यु का वरण कर सौधर्म लोक के अरुणकील विमान में देवभव को प्राप्त हुए। कालान्तर में मनुष्य जन्म प्राप्त करके, साधना करते हुए मोक्ष को प्राप्त करेंगे। सालिहीपिता सद्गृहस्थ था। सद्गृहस्थ के बाहरी जीवन में भी अभाव नहीं होता और भीतर भी शान्ति रहती है। धर्म के बिना धनी भोगी बाहर से भले ही सम्पन्न हो, पर भीतर से अशान्त/बैचेन रहता है और धर्मविमुख दरिद्र भोगी के भीतर-बाहर अँधेरा रहता है । अत:धर्म ही सुखों का मूल है । होत अभाव = न होना, कमी पदत्राण = जूते, चप्पल अखण्ड आनन्द = सदा बना रहने वाला भीतर का सुख । भण्डार = कोष, खजाना | भोगी = संसार को सचा समझ कर संसार और संसार की वस्तुओं में सुख समझने वाला व्यक्ति सम्पन्नता= पूर्णता, अधिकता, मलिनता = मैलापन, अभाव।दीनता = अकिंचनता, हीनता का भाव अशान्ति = चिन्ता, बैचेनी सद्गृहस्थ = गृहस्थ जीवन को धर्ममय बनाकर जीने वाला व्यक्ति ; जो दान-पुण्य, परोपकार, साधु-सेवा में धन और समय लगाता है ।महाश्रमण = सभीश्रमणों में श्रेष्ठ, केवल ज्ञानी साधु,यह विशेषण भगवान महावीर के लिए रूढ़ है । संलेखना/अनशन = विवशता या किसी अन्य कारण से भोजन का त्याग अनशन कहाता है। अन् = नहीं, अशन = भोजन । लेकिन मृत्यु को निकट । आसन्न जानने के बाद स्वेच्छा से मृत्यु को सरल करने के लिए भोजन का त्याग या अनशन, संलेखना व्रत कहलाता है। श्रावक सालिहीपिता/67
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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