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________________ | श्रावक सालिहीपिता | साधु अकिंचन होता है। उसके पास कुछ नहीं होता। बाह्य जीवन में उसके अभाव ही अभाव है। पैरों में पदत्राण नहीं होते और सिर भी नंगा रहता है। लेकिन साधु के भीतर अनन्त आनन्द और अनन्त शान्ति का कोष भरा रहता है। वह दूसरों को भी शान्ति बांटता है। वह सभी के लिए प्रेम लुटाता रहता है। इसके ठीक विपरीत सांसारी / भोगी के बाह्य जीवन में सम्पन्नता होती है। धन-सम्पत्ति, भवन-परिवार सब कुछ होता है, उसके पास । लेकिन उसके भीतर अशान्ति, चिन्तायें भरी होती हैं। यदि कोई मनुष्य दरिद्र-निर्धन हो तो उसके जीवन में भीतर और बाहर-दोनों ओर अंधेरा हो जाता है। बाहर मलिनता अथवा अभाव और भीतर दीनता/अशान्ति रहती है । एक सद्गृहस्थ और धर्मनिष्ठ श्रावक का जीवन सबसे अलग होता है। सद्गृहस्थ /श्रावक अपने जीवन में धर्म का ऐसा दीपक जलाता है कि भीतर-बाहर दोनों ओर उजाला रहता है। बाहर अटूट सम्पत्ति रहती है और भीतर मन में अखण्ड शान्ति रहती है। ऐसे सद्गृहस्थ का प्यार अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रहता, वह जीवमात्र सबसे प्यार करता है। श्रावस्ती नगरी में अनेक सद्गृहस्थ रहते थे । सालिहीपिता श्रावस्ती नगरी में रहने वाले सद्गृहस्थ थे। इनका नाम तो शालेयिकापिता था, पर बोलचाल में सालिहीपिता कहे जाते थे। ये
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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