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________________ पैदल-पैदल चलता हुआ समवसरण में पहुंचा। आराध्य भगवान् महावीर को विधिपूर्वक वंदना की। उनकी पवित्र सन्निधि में बैठ गया। मन लगाकर प्रभु की देशना सुनी। मन में श्रद्धा जागी। देशना सुनने के बाद आनन्द ने भगवान से निवेदन किया "प्रभो, आपके वचनों में मेरी अट श्रद्धा हो गई है। इस संसार सागर को पार करने के लिये आपने जो चार तीर्थ हम संसारियों को बताये हैं, वे सर्वोत्तम हैं, पर प्रभु चाहते हुए भी श्रमण जीवन के महाव्रतों का पालन करने की मेरी सामर्थ्य नहीं है । अतः भगवन् मुझे अणुव्रत पालन करने की अनुमति प्रदान करें।" प्रभु ने कहा - "आनंद ! जैसा तुम्हें सुखकर लगे तुम वैसा ही करो। लेकिन धर्माचरण में विलम्ब हितकर नहीं होता।" भगवान की अनुमति प्राप्त कर गृहपति आनन्द ने पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-इस प्रकार श्रावक के बारह व्रत विनय-नत होकर सहर्ष स्वीकार किये। गृहपति आनन्द ने जो गृहस्थ धर्म के नियम स्वीकृत किये वे इस प्रकार थे : स्थूल प्राणातिपात (बड़ी जीव हिंसा का त्याग), स्थूलमृषा-वाद (मोटे झूठ का त्याग), स्थूल अदत्तादान (मोटी चोरी) का त्याग किया । चतुर्थ अणुव्रत में आनन्द ने अपनी पत्नी शिवानन्दा के अतिरिक्त अन्य समस्त स्त्रियों के लिए सम्मान व्रत ब्रह्मचर्य व्रत अर्थात् मातृभाव रखने का व्रत लिया। पंचम अणुव्रत में धन के परिग्रह की सीमा के अन्तर्गत आनन्द ने कृषि, वाणिज्य, गोकूल आदि के माध्यम से धन-उपार्जन की सीमा निश्चित की। इतने धन से अधिक धन का मैं संग्रह नहीं करूंगा और परिग्रह की सीमा से अधिक जो धन आयेगा, उसे दान कर दूंगा। इन नियम-व्रतों को स्वीकृत कर आनन्द जिनधर्मी श्रमणोपासक बन गया। धर्म का लाभ स्वयं उठा कर दूसरों को प्रेरित करना भी श्रावक का परम कर्तव्य है। इस दृष्टि से आनन्द ने अपनी पत्नी शिवानन्दा को भी प्रेरित किया कि वह व्रत ग्रहण करके श्रमणोपासिका बन जाये । तब शिवानन्दा ने भी भगवान् के श्रीमुख से बारह व्रत ग्रहण किये। आनन्द की धर्म श्रद्धा और धर्म भक्ति को देख कर, भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम ने भगवान् से पूछा - "भन्ते, गाथापति आनन्द का धर्म प्रेम श्रावक व्रतों के अनुपालन तक ही सीमित रहेगा या कालान्तर में यह मुनि दीक्षा लेकर महाव्रतों को भी ग्रहण करेगा?" भगवान् ने कहा - "गौतम ! आनन्द श्रमण बनकर महाव्रतों का पालन नहीं करेगा । वह गृहस्थ 12/महावीर के उपासक
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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