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________________ १११६ प्रज्ञापनासूत्रे उपपद्यन्ते, एवं यथा एतेषाञ्चैव उपपातस्तथा उद्वर्तनाऽपि देववर्जा भणितव्या, एवम् अबूवनस्पतिद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि, एवं तेजः कायिकाः, वायुकायिकाः नवरं-मनुष्यवर्जेषु उपपद्यन्ते । टीका-अथासुरकुमारादीनामुद्वर्तनानन्तरमुपपातवक्तव्यतां प्ररूपयितुमाह'असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जंति ? हे भदन्त ! असुरकुमाराः खल्लु अनन्तरम्-उद्वृत्त्य उद्वर्तनानन्तरमित्यर्थः कुत्र गच्छन्ति ? कुत्र उपपद्यन्ते ? तदेव स्फुटयति-'कि नेरइएसु जाव देवेसु उवव(गोयमा! नो नेरइएसु) गौतम! नारकों में नहीं (तिरिक्खजोणियमणूसेसु उववज्जंति) तिर्यचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं (नो देवेसु उववज्जति) देवों में उत्पन्न नहीं होते (एवं जहा एतेसिं चेव उववाओ तहा उव्वदृणा वि देववज्जा भाणियव्वा) इस प्रकार जैसा इनका उपपात कहा है वैसी ही उद्वर्तना भी देवों को छोड कर कहनी चाहिए (एवं आउ वणस्सइ बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिया वि) इसी प्रकार अप्कायिक द्वीन्द्रिय, ब्रोन्द्रिय और चौइन्द्रिय भी (एवं ते उकाइय बाउकाईया) इसी प्रकार तेजाकायिक और वायुकायिक (नवरं मणुस्सवज्जेस्लु उववज्जति) विशेषता यह है कि मनुष्यों को छोड कर उत्पन्न होते हैं टीकार्थ-अब असुरकुमार देव अपने पर्याय को त्यागकर वहां उत्पन्न होते हैं, यह प्ररूपणा की जाती है गौतम प्रश्न करते हैं-भगवन् ! असुरकुमार देव अनन्तर उदूवर्तन करके कहां जाते हैं ? कहां उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रश्न को स्पष्ट करते नेरइएसु) गौतम ! नाम नही. (तिरिक्खजोणिएमणूसेसु उववज्जति) तिय या भने भनुष्योमा उत्पन्न थाय छे. (नो देवेसु उववजंति) हेवामा उत्पन्न नथी थता (एवं जहा एतेसि चेव उववावो तहा उव्वट्टणा वि देववज्जा भाणियव्वा) से रीते જે તેમને ઉપપાત કહ્યો છે તેવીજ ઉદ્વતને પણ દે સિવાય કહેવી न . (एवं आउ, वणस्सइ, बेइंदियतेइंदियचतुरिंदिड वि) से प्रारे २५५४॥यि४, दीन्द्रय, त्रीन्द्रिय भने यतुरिद्रिय ५९ (एवं तेउकाइया वाउकाईया) से शत तायि भने वायुय (नवरं मणुस्सवज्जेसु उववज्जंति) विशेषता એ છે કે મનુષ્ય સિવાય ઉત્પન્ન થાય છે. ટીકાથ-હવે અસુરકુમાર દેવ પિતાના પર્યાયને છેડીને કયાં ઉત્પન્ન थाय छे. ते प्र३५॥ ४२।५ छ: શ્રી ગૌતમ સ્વામી -ભગવદ્ ! અસુરકુમાર અનન્તર ઉદ્વર્તન કરીને ક્યાં જાય છે? ક્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. એ જ પ્રશ્નને સ્પષ્ટ કરે છે કે શું શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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