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________________ ५४९ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रमगणवर्णनम् सम्बन्धः, 'पडिपुण्ण दब्बुवक्खडे परिपूर्णद्रव्योपस्कृतः, तत्र परिपूर्णानि द्रव्याणि एला प्रभृतीनि तैः उपस्कृतानि - नियुक्तानि यत्र स तथा, 'सुसकए' सुसंस्कृत :यथोक्त-मात्रव्याघारादिना परमसंस्कारमुपनीतः । वण्णगंधरसफरिसजुनबलवीरियपरिणामे' वर्णगंधरसस्पर्शयुक्त बलवीर्यपरिणामः, तत्र वर्णगंधरसस्पर्श :: सामर्थ्यादतिशायिनस्तैर्युक्ता बलवीर्यहेतवश्च परिणामा आयतिकाले यस्य स तथा, अतिशायिभिर्वर्णादिभिर्बलवीर्य हेतु परिणामैवोपपेत इत्यर्थः तत्र बलं शरीरं वीर्यमान्तरोत्साहः | 'इंदिय बल पुढिवणे' इन्द्रिय बलपुष्टिवर्धनः इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं स्व स्वविषय ग्रहण पटुत्वं तस्य पुष्टिः- अतिशयित पोषस्तां वर्द्धयति प्रकार का विशिष्ट खाद्य बन जाता है, 'अहवा पडिपुण्ण दव्ववक्खडे सुसक्क वष्ण गंधरस फरिसजुत्त बलवीरियपरिणामे' अथवा वह इस स्थिति में निष्पन्न हुआ भात जब परिपूर्ण द्रव्यों से उपस्कृत हो जाता है - एलाइची आदि सुगंधित पदार्थों से युक्त कर दिया जाता है और 'सुसक्कए' यथोक्त मात्रा में वचार देकर सुसंस्कार युक्त किया गया हो 'वण्णगधरसफरिसजु त बलवी रियपरिणामे' तब उसका परिपाक बल- शारीरिक बल का और वीर्य आन्तरिक शक्ति का वर्धक हो जाता है- क्योंकि वह वर्ण, गंध रस और स्पर्श इन गुणों की विशिष्टता से संपन्न हो जाता है तथा यह 'इंदियबल पुट्टिवद्धणे' भात-ओदन उपभोग करने पर इन्द्रियों में इतनी बलिष्ठता भर देता है कि जिस से वे अपने-अपने विषय को ग्रहण करने मे पटु बनी रहती हैं । यह पटुता उनमें कम नही होने पाती है प्रत्युत इसको उससे पोषण ही - છે. તે એવા પ્રકારને તે ભાત એક વિશેષ પ્રકારનું ખાદ્ય ખની જાય છે. 'अहवा पडिपुण्ण दव्वुवक्खडे सुसक्क ए वण्णगंधर सफरिसजुत्तबल वीरिय परिणामे' अथवा स्थितिमां ते मनाववामां आवेस लात न्यारे संपूर्ण પદાર્થોથી સંપાદિત કરવામાં આવે છે, ઇલાયચી વિગેરે સુગંધદાર પદાથેÜથી संपादित करवामां आवे छे, भने 'सुसक्कए' यथेोक्त प्रमाणुथी वधारीने सुसंस्४२ युक्त वामां आवेस होय, 'वण्णगंधर सफरिसजुत्तबल वीरिय परिणामे' त्यारे तेने। परिया जण शरीर संबंधी भजने तथा वीर्य आंतरि શક્તિને વધારનાર ખને છે. કેમકે તે વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પશ, આ ચારે પ્રકારના ગુણોની વિશિષ્ટતાથી સંપન્ન થઈ જાય છે. તથા આ ભાતના 'इंदियबल पुट्टिवड्ढणे' उपलोग अरवाथी इंद्रियोगां मज लरिहे छे. हे भेथी તે ઇંદ્રિયો પાતાના વિષયને ગ્રહણ કરવામાં તત્પર રહે છે, અને તેની શક્તિ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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