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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४७५ टीका- अविशुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धले श्यः, विशुद्ध लेश्या विद्यते यस्य सविशुद्ध लेश्यः न विशुद्ध लेश्य इति अविशुद्धलेश्यः कृष्णनीलकापोतलेश्यावान् खलु भदन्त ! अनगारः, न विद्यते अगारं-गृहं यस्य सोऽनगारः साधु: 'असमोहएणं' असमवहतेन वेदनादि समुद्घातरहितेन 'अप्पाणेणं' आत्मना 'अविशुद्ध लेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्ध लेश्य-कृष्णादिलेश्योपेतं देवं देवीं वा अनगारम् 'जाणइ पासई' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यति दर्शनविषयी. करोतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' ! हे गौतम ! 'नो इणढे सम?' नायमर्थः समर्थः अविशुद्ध लेश्या वत्त्वेन यथावस्थितवस्तु परिच्छेदा. 'अविशुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं' इत्यादि टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'अविशुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' हे भदन्त ! जो अनगार जिसके-अगार-घर नहीं हो वह अनगार अर्थात्-साधु-अविशुद्धिलेश्या वाला है कृष्ण नील कापोत लेश्या वाला हे-और 'असमोहएणं अप्पाणेणं' वेदनादि समुद्रात विहीन आत्मा द्वारा क्या 'अविशुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं' अविशुद्ध लेश्या वाले कृष्णादि लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को 'जाणइ पासइ' ज्ञान द्वारा जानता है और दर्शन द्वारा देखता हैइसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- गोयमा! णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं अर्थात् अविशुद्ध लेश्या वाला होने के कारण उस अनगार के यथावस्थित वस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव कहा गया है इस तरह अविशुद्ध लेश्या वाला अनगार यथार्थ __ 'अविसुद्धलेस्सेण भंते अणगारे असमोह एण अप्पाणेण' त्या -श्रीगीतमस्वामी के प्रमुश्रीन मेj ५७यु 'अविसुद्धलेस्से ण भंते अणगारे' , मापन २ मशार मेट २२ ॥२-५२ नाय त અનગાર અર્થાત સાધુ અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા છે. કૃષ્ણનીલ કાપત, વેશ્યાવાળા छ, भने 'असमोहएणं अप्पाणेणे' वहन। विगेरे समुद्धात २डित मात्मा । 'अविसद्धलेस्सं देवं देवं अणगारं' भविशुद्ध श्याण विगेरे वेश्य। पावने मगर हेवीन मया माणुगारने 'जाणइ पासई ज्ञान द्वारा तो છે? અને દર્શન દ્વારા દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा ! णो इणने समहे' हे गौतम ! २॥ सर्थ सम२ नथी. अर्थात् वि. શુદ્ધ વેશ્યાવાળા હોવાથી એ અણગારને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાવાળા જ્ઞાનને અભાવ કહેલ છે. આ પ્રમાણે અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળો અણગાર યથાર્થ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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