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________________ ३६६ जीवाभिगमसूत्रे कर्मोदयतः तेषां नारकाणा मनिष्टैव विकुर्वणा भवतीति । 'वेउव्वियं शरीर' वैक्रियं शरीरं भवति नारकाणाम् तदपि वैक्रिय मुत्तरवैक्रियम् 'असंघयणं' असंहननम् अस्थ्यभावेन संहननाभावात् उपलक्षणमेतत् भवधारणीयमपि वैक्रिय शरीरं संहननवर्जितमेप भवति तथा-'हुंड संठाणं' हुण्डसंस्थानं तत् उत्तर वैक्रिय शरीर भवति, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवप्रत्ययत उदयभावात् । 'जीवो' कश्चिज्जीव: 'सव्वपुढवीसु' सर्वासु रत्नप्रभादिनरकपृथिवीषु सव्वेसु ठिइविसे सेसु' सर्वेष्वपि च स्थितिविशेषेषु जघन्यादि रूपेषु 'अस्साओ उववण्णो' असात:-असातोदयप. रिकलितउपपन्नः उत्पत्तिसमयेऽपि पूर्वभवमरणकालानुभूतमहादुःखस्यानुवृत्ति भावात् उत्पत्यनन्तरमपि 'अस्साओचेव' असात एव-असातोदयकलित एव सकलमपि 'निरयभवं चयइ' निरयभवं त्यजति क्षपयति न तु कदाचिदपि सुखलेश. से उन नारकों के अनिष्ट ही विकुर्वणा होती है। 'वेउम्वियं शरीरं' नारक जीवों के जो शरीर होता है वह वैक्रिय ही होता है और वह वैक्रिय भी उत्तर वैक्रिय होता है । 'असंघयणं' यह उत्तर वैक्रिय शरीर विना संहननका अस्थि आदि से शन्य-इसी तरह भवधारणीय वैक्रिय शरीर भी संहनन विना का ही होता है। नरको में वह उत्तर वैक्रिय शरीर हुंड संस्थान वेढब अवयव वाला होता है क्योंकि वहां जन्म लेने से ही इनके हुण्ड संस्थान नाम कर्म का उदय रहता है। 'जीवो सव्व पुढवी सु-सव्वेसु ठिइ विसेसेसु अस्साओ उववण्णो' कोई जीव समस्तपृथिवियों में और जघन्यादि रूप स्थिति विशेषों में असातोदय युक्त उत्पन्न हुआ, उत्पत्ति काल में भी वह पूर्व भव में मरण काल में अनभत महा दुःखो की अनुवृत्ति के प्रभाव से उत्पत्ति के अनन्तर भी असाता वेदनीय के उद्य से युक्त हुआ हो सम्पूर्ण निरयभव को समा. यी नार मनिष्ट विशाल हाय छे. 'वेउव्वियं सरीर' ना२४ ને જે શરીર હોય છે, તે વૈક્રિય શરીરજ હોય છે. અને વૈક્રિયમાં પણ तमान उत्तर वैश्यि शरी२०४ जाय छे. असंघयणं' मा उत्तर वैश्य शरी२ સંહનના હાડકા વિનાના હોય છે. એ જ પ્રમાણે ભવધારણીય વૈક્રિયા શરીર હડ સંસ્થાન અર્થાત્ બેઢબ અવય વાળું હોય છે. કેમકે ત્યાં જન્મ देवायी तमान संस्थान नाम भनी हय २३ छ. 'जीवो सव्व पढवीस सव्वेसु ठिइ विसेसेसु अस्साओ उववण्णो १ सधणी पृथ्वीयामा અને જઘન્ય વિગેરે રૂપે સ્થિતિ વિશેષમાં અસાતેાદય યુક્ત ઉત્પન્ન થયે હોય, અને ઉત્પત્તિ કાળમાં પણ પૂર્વભવમાં મરણ સમયે અનુભવેલ મહા દુખેની જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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