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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०५ णेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि नरकादयःपिण्डं निःसारयिष्यामीति कृत्वा यावदृष्टुं प्रवर्तते तावत् 'पविरायमेव पासेज्जा' प्रवितरं प्रस्फुटितमेवायःपिण्डं पश्येत् । यदि वा 'पविलीणमेव पासेज्जा' प्रविलीनमेव नवनीतादिवत् सर्वथा गलितमेव पश्येत् यदि वा 'पविद्धस्थमेव पासेज्जा' प्रविध्वस्तमेव सर्वथा भस्मसाद्भूतमेव पश्येत् ‘णो चेव णं संचाएंति' नैव खलु शक्नुयातू-समर्थों भवेत् तमयापिण्डं नरकात्समुद्धर्तुम् अचिरात्तम् 'अविरायं वा' अवितरम्, अप्रस्फुटितं वा, 'अविलीणं' वा' अवलीनं वा 'अविद्धत्थं वा' अविध्वस्तं वा 'पुणरवि पच्चद्धरित्तए' पुनरपि प्रत्युद्धतुम, तत्र सोऽयःपिण्ड उन्मेषनिमेष मात्रकाले नैव तद्गतोष्णप्रभावान्नवनीतमिव विलीनं भवति, एतादृशी खलु उष्णवेदनीयेषु नरकेषु उष्णवेदना भवतीति । देखता है कि इतने ही में वह गोला वहां 'पविरायमेव पासेज्जा' वहां टुकडे २, रूप में होता हुआ उसे दिखाई पड़ता है अथवा- वह नवनीत मक्खन आदि की तरह सर्वथा गलता पिघलता हुआ प्रतीत होता है 'पविद्धमेव पासेज्जा' अथवा-भस्मरूप अवस्था को प्राप्त हुआ वह उसे दिखाई देता है अतः वह लुहार दारक 'णो चेव ण संचाएंति' उस अयःपिण्ड लोह पिण्ड को वहां से निकालने में असमर्थ हो जाता है'अविरायवा'जल्दी से अथवा अप्रस्फुटितरूप से 'अविलीणवा' अविलीन रूप से अखंड रूप से-जैसा वह गोला था उस रूप से-'अविद्धत्थंवा एवं साबितरूप से 'पच्चुद्धरित्तए' पुनः निकालने के लिये उस गोलेको। ऐसी उष्णवेदना उष्णता वाले नरकों में है। तात्पर्य यह है कि वह लुहार दारक जब उस लोहे के गोले को उष्ण वेदना वाले नरकों में निमेषो. भाट वियारे छ, तरसामior ते गाणे त्यो 'पविरायमेव पासेज्जा' त्यो ४४ કકડાના રૂપમાં થયેલે તેને નજરમાં આવે છે. અથવા તે નવનીત કહેતાં माम विरेनी म सर्वथा तो पात माय छे. 'पविद्ध मेव पासेज्जा અથવા તો ભરૂમ રૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ છે તેની નજરમાં આવે છે. તેથી ते बुहारने पुत्र ‘णो चेव णं संचाएंति' तो ना नि त्यांथी ४ावामा असम २४ लय छे. 'अविरायवा' हीथी अथवा मटित ३५थी 'अविलीण वा' भविदीन पाथी अर्थात् ५५ ३५थी वो त गाणी तो ते ५४ारथी 'अविद्वत्थंवा' भने स२॥ ५॥थी 'पच्चुद्धरित्तए' ફરીથી તે ગેળાને કહાડવામાં અસમર્થ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તે લુહારનો છોકરે જ્યારે તે લોખંડના ગેળાને ઉણ વેદનાવાળા નારકમાં નિમેન્મેષ માત્ર કાળ સુધીના કાળ માટે પણ મૂકે છે, અને તેટલે કાળ जी० ३९ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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