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________________ ३०४ जीवाभिगमसूत्रे संहन्यात्-संहतं कुर्यात् पुनः पिण्डितं कुर्यात् ‘से णं तं' स खलु तम् अयः पिण्डम् 'सीत' शीतम् स च पिण्डो बहिनिष्कासनमात्रेणापि संभवेदत आह-'सीतीभूतं' शीतिभूतं सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतम् 'अयोमएणं संदंसएणं गहाय' अयोमयेन लौहनिर्मिते न संदंशकेन तमयः पिण्डं गृहीत्वा 'असम्भावपट्टवणाए' असद्भाव' प्रस्थापनया असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति न भविष्यति वा केवल मस. द्भूतमेव कल्प्यते इति 'उसिणं वेयणिज्जेसु नरएसु पक्खिवेज्जा' उष्णवेदनीयेषु नरकेषु तमयापिण्डं प्रक्षिपेत् । 'से गं तं' स खलु तमयापिण्डम् 'उम्मिसियणिमिसियंतरेण' उन्मिपित निमिषितान्तरेण 'पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामीति कटु' पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामि पतितं नरके अयःपिण्डं पुनरपि निःसारयिष्यामीति कृत्वा यावता अन्तरेण यावता व्यवधानेन निमेषोन्मेषौ क्रियेते तावदन्तरममारहने देवे-इस तरह वह बिलकुल ठण्डा हो जायेगा-ठंडा हो जाने पर फिर वह उस गोले को 'अयोमएण संदंसरण गहाय' लोहे की साडसी से पकडकर 'असम्भावपट्टवणाए' असत्कल्पना से-यदि ऐसा कभी नहीं हुआ है न होगा न होता है-परन्तु अपने मन की कल्पना से ऐसी कल्पना कर लेना चाहिये-और उस कल्पना के अनुसार संडासी द्वारा पकडे हुए, उस लोहे के गोले को वह 'उसिणवेदणिज्जेसु नरएसु पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदना वाले नरकों में रख देवे से णं तं उम्मिसिय णिमिसियंतरेण' रखते समय वह ऐसा विचार कर लेवे कि मैं इसे अभी २, पलक मारकर उघाडते ही 'पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामीति. कट्ट' उठा लउंगा-इस विचार से वह उसे वहां रख देता है परन्तु निमिषोन्मेष करने के बाद ही ज्यों ही वह उसे निकालने के लिये प्रमाणे ते मिge 31 ५ नय त्या२ ५७० ३ ते गाणाने 'अयोमए णं संदसएणं गहाय' वामनी सांउसीथी ५४ीने 'असम्भावपट्टवणाए' सपनाथी જો કે આ પ્રમાણે કઈ વખત થયું નથી. અને થશે નહીં તેમજ થતું પણ નથી. પરંતુ પિતાના મનની કલ્પનાથી એવી કલ્પના કરી લેવી જોઈએ અને a४६५ना प्रभार सांडसीथी ५४ सोमनी गाणे ते 'उसिण वेदणि ज्जेसु नरएसु पक्खिवेज्जा' ०४ वहनावा॥ नामां रामपामा भावे 'सेणं त उम्मिसिय णिमिसियंतरेण' भने तवी शते रामती १५ ते शेवा विया२ ३३ माने भ म भा३ तेस्मामा ८ 'पुणरवि पच्चु द्घरिस्सामीतिकटु' व श से वियाथी ते जाने त्यां भूडी है છે. પરંતુ નિમેષે મેષ કર્યા પછી જ જ્યારે તે એ ગાળાને બહાર કહાડવા જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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