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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् अक्षया क्षयो नाशस्तद्रहिता । अक्षयत्वादेव च 'अव्वया' अव्यया व्ययो विनाशस्तद्रहिता मानुषोत्तराद्वहिः समुद्रवत् । अध्ययत्वादेव 'अवट्टिया' अवस्थिता स्व प्रमाणावस्थिता सूर्यमण्डलादिवत् । एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना 'णिच्चा' नित्या अपच्यातानुत्पन्नस्थिरैकरूपाजीवस्वरूपवत् अथवा धुवादयः शब्दा इन्द्रशकादिवत् पर्याय शब्दाः नानादेशजाविनेयानुग्रहार्थमुपन्यस्ता इति न पौनरुक्त्यमिति । सिन्धु नदियों के प्रवाह में प्रवृत्ति वाले हैं-फिर भी अक्षय है-क्योंकि उनमें से अन्यतर पुद्गलों के विघटन होने पर भी अन्यतर पुद्गलों द्वारा उनका उपचप होता रहता हैं इसी प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी में से अनेक पुद्गलों का विघटन होता रहता है और अनेक पुद्गलों द्वारा उसका उपचय होता रहता है । अक्षय होने से ही यह 'अव्वया' मानु षोत्तर से बाहर में समुद्रों की तरह अव्यय है अर्थात विनाश से रहित है। और अव्यय होने से ही यह 'अवडिया' अवस्थित है-सूर्य मण्डलादि की तरह यह अपने प्रमाण में सदा स्थित है और अपने प्रमाण में सदा स्थित होने से ही यह 'णिच्चा' जीव स्वरूप की तरह अप्रच्युत, अनुत्पन्न स्थिर एक रूप है अथवा-ध्रुवादिक ये सब शब्दइन्द्र, शक, पुरन्दर आदि शब्दों की तरह पर्याय शब्द है । इनका जो यहां उपन्यास किया गया है सो वह अनेक देशों के-भिन्न २, देशों के-विनेयों को समझाने के निमित्त से किया गया है अतः इनके कथन में पुनरुक्ति दोष नहीं आता है। વાળા છે, તે પણ અક્ષય છે. કેમકે તેમાંથી અન્યતર પુદ્ગલે ના વિઘટન થવા છતા પણ અન્યતર પુદ્ગલ દ્વારા તેને ઉપચય થત રહે છે. એ જ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાંથી અન્યતર પુદ્ગલેનું વિઘટન થતું રહે છે. અને અનેક પુદ્ગલ દ્વારા તેને ઉપચય થતું રહે છે. माय बाथी मा 'अव्वया' मानुषोत्तरथी मारना समुद्रोनी रम भव्यय छ. अर्थात् विनाश २हित छे. अने अव्यय पाथी ४ मा 'अवढिया' અવસ્થિત છે. સૂર્ય મંડલ વિગેરેની જેમ તે પોતાના પ્રમાણમાં સદા સ્થિત २पाथी 'णिच्चा' ७१ २१३५नी २म मप्रत्युत, अनुत्पन्न स्थि२ मे રૂપ છે. અથવા ધુવાદિક આ બધા શબ્દ ઈન્દ્ર, શક, પુરંદર વિગેરે શબ્દોની માફક પર્યાય શબ્દ છે. તેને જે આ ઉપન્યાસ-કથન કરવામાં આવ્યું છે તે આ અનેક દેશોના અર્થાત્ જુદા જુદા દેશના વિને નામ શિષ્યોને સમજાવવા માટે જ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી તેઓના કથનમાં પુનરૂક્તિદોષ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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