SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮ ओपपातिकसूत्र मणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किंमंग ! एत्तो उत्तरतरं ?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ सू०५९ ॥ नम् ; ' वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह' विरमणमाचक्षाणा अकरणं पापानां कर्मणामाख्याथ-पापरूपाणां कर्मणामकरणम् अनाचरणं कथयथ, ‘णस्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए' नास्ति खल्वन्यः कोऽपि श्रमणो वा ब्राह्मणो वा य ईदृशं धर्ममाख्यायात् , 'किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं' किमङ्ग ! पुनरेतस्मात् उत्तरतरम्-अस्माद्धर्मोपदेशादुत्कृष्टं कथयिष्यतीति का सम्भावना ! न कापीत्यर्थः, ‘एवं वदित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया' एवम् उदित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः ॥ सू०५९ ॥ क्खह) प्राणातिपातादिक के विरमण का उपदेश देते हुए आप पापरूप कर्मों को नहीं करने का उपदेश भी देते हैं। अतः (णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तर) इस संसार में हे नाथ ! ऐसा और कोई दूसरा श्रमण वा ब्राह्मण उपदेष्टा नहीं है जो इस प्रकार के धर्म का उपदेश दे सके, (किमंग! पुण एत्तो उत्तरतरं) फिर इससे उत्कृष्ट धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ! (एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया) इस प्रकार कह कर वे सब जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये ॥सू. ५९॥ वि२४त थपानी पहेश यो छे. (वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह) प्रातिपातहिना विरभानो उपहेश हेती मते आपे पा५३५ ४ी न ४२वान पY अपहेश ४ये छ. माटे (णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए) २॥ ससारमा, नाथ ! सेवा मीने કેઈ શ્રમણ કે બ્રાહ્મણ ઉપદેષ્ટા નથી કે જે આ પ્રકારના ધર્મને ઉપદેશ मापी श. (किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं) तो पछी मानाथी उत्कृष्ट यमन 64देश र पापी श ! अर्थात् नहि. (एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया) मा ४२ ४डीने ते या हिशामेथी याच्या ता ते ४ हिशा त२५ पाछ। यादया गया. (सू. ५८)
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy