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________________ पीयूषवर्षिणी टीका स. ४८ कूणिकस्य व्यायामादिविधिः समाणे तेलचम्मंसि पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-कोमल-तलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पट्टेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउण'अभिगेहिं ' अभ्यङ्गैः-स्नेहनैः ‘अभिगिए समाणे ' अभ्यङ्गितः-कृताभ्यङ्गः सन् 'तेलचम्मंसि' तैलचर्मणा, अत्र तृतीयार्थे सप्तमी; तैलानुलिप्तशरीरस्य मर्दनसाधनरूपं चर्म 'तैलचर्म' इत्युच्यते; 'संवाहिए समाणे' संवाहितः सन्-इत्युत्तरेण अन्वयः; कैः संवाहित इत्याह-पुरिसेहिं पुरुषैः-अङ्गसंवाहननियुक्तभृत्यैः, तैः कीदृशैरित्याह'पडिपुण्ण-पाणिपाय-सुउमाल-कोमल-तले हिं' प्रतिपूर्ण-पाणिपाद-सुकुमार-कोमलतलै:--प्रतिपूर्णानाम् अविकलाना, पाणिपादानां सुकुमारकोमलानि-अतिमृदुलानि तलानि येषां ते तथा तैः, ‘छेएहिं ' छेकैः मर्दनकलानिपुणैः, 'दक्खेहिं ' दक्षः अविलम्बितकारिभिः, मर्दनकार्येऽप्रेसरैः, 'पढेहिं' प्रष्ठैः, 'कुसले हिं' कुशलैः=मर्दनविधिज्ञैः, 'मेहावी हिं' मेधाविभिः-प्रतिभाशालिभिः, निउण-सिप्पो-वगएहिं ' निपुणशिल्पोपगतैः, उवटनों से (अभिगिए समाणे) शरीर की खूब मालिश करवाई । *(तेलचम्मंसि) तैलचर्मसे मालिस करनेवाले (पुरिसेहिं) पुरुषों ने कि जिनके (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-तलेहिं) हाथ और पैर के तलबे अधिक सुकुमार थे, (छेएहिं) मर्दन करनेकी कला में जो अधिक निपुण थे, (दक्खेहिं ) इसीलिये जो इस कला के जाननेवालों में सर्वप्रथम गिने जाते थे, (पढेहिं) मर्दन करने की विधि क्या है और किस ढंग से किस समय कैसा मर्दन करना चाहिये-इत्यादि बातों में जो विशेष पटु थे, (मेहावीहिं) नवीन २ रीति से ___* यहां तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति हुई है, तैल से चिकने हुए शरीर को मर्दन करने का साधनरूप चर्म तैलचर्म कहलाता है। पापाजां डाय छ, सेवा तेथी, तथा (अभिगेहिं) Gटनोथी ( अभिगिए समाणे) शा२नी भू मालिश ४२रावी. (तेलचम्मंसि) तेसयमयी मालिश ४२वा (पुरिसेहिं) ५३षो सेरेना (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-तलेहिं) डाथ तथा पानi dui मई सुभा२ मा तi, (छेएहिं) भईन ४२पानी ४ामा २ मा निपु ता, (दक्खेहि) माथी २ ॥ ४ाना १५२मां सर्वप्रथम साता ता, ( पटेहिं ) भहन ४२वानी विधि छ भने वी રીતે કેવા સમયે કેમ મદન કરવું જોઈએ-ઈત્યાદિ વાતમાં જે વિશેષ 3 &al, (मेहावीहिं) नवी नवी रीत २ भई ४२वानी ४ाना मावि [૨] અહીં તૃતીયાના અર્થમાં સપ્તમી વિભક્તિ થઈ છે. તેલથી ચીકણાં થયેલ શરીરને મર્દન કરવાનું સાધનરૂપ ચર્મ તેલચમ કહેવાય છે.
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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