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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०३ द्वीन्द्रियेभ्यः पृ. नामुत्पत्तिनिरूपणम् ७१ कथितं तदतिरिक्तं सर्वमपि तदेव पूर्वोक्तमेवेति । काय संवेधे वैलक्षण्यं दर्शयितु माह - 'मवादेसेणं' इत्यादि, 'भवादेसेणं जहन्नेगं दो भवगहनाई' भवादेशेनभवप्रकारेण भवापेक्षया जघन्येन द्वे भवग्रहणे 'उक्को सेणं संखेज्जाई भवग्गहणाई " उत्कर्षत: संख्येयानि भवग्रहणानि, 'कालादे से गं' काळा देशेन - कालापेक्षया 'जहने दो अंतो हाई' जघन्येन द्वे अन्तर्मुहुर्ते, 'उक्को सेणं संखेज्जं कालं उत्कर्षेण संख्येयः कालः 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं यावत्कुर्यात् एतावन्तं जघन्येोत्कर्षेण च प्रदर्शितकालपर्यन्तं द्वीन्द्रियगतिं पृथिवीगतिं च सेवेत, तथा विशेषता आई है तो ' एवं 'अणुबंधो वि' अनुबन्ध में भी विशेषता है क्योंकि अनुबन्ध स्थिति रूप होने से उत्कृष्टस्थिति २२ हजार वर्ष की कही गई है 'सेस तं चेत्र' जो ये स्थिति आदिक कहे गये हैं-सो इनके अतिरिक्त और सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही है - अर्थात् पृथिवी कायिकके समान ही है । अब सूत्रकार कायसंवेध में भिन्नता दिखाते हुए कहते हैं- 'भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' भव की अपेक्षा कायसंवेध यहां जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने तक का और 'उक्को सेणं संखेज्जाइ भवग्गहणाई' उत्कृष्ट से वह संख्यात भवों को ग्रहण करने तक का है तथा - 'कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ताइ उक्को सेणं संखेज्जं कालं काल की अपेक्षा वह जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से संख्यात कालरूप है, 'एवइयं जाव करेज्जा' इस प्रकार वह द्वन्द्रय जीव जो कि पृथिवी कायिक में उत्पन्न होने के स्थितिना समधभां विशेषपाशु छे, तो 'अणुबंधो वि एवं' अनुसंधभां पाशु विशेषपालु छे. हेम! - अनुबंध स्थिति ३य होय में 'सेसं त' चेव' स्थिति વિગેરેના સંબંધમાં જે આ કથન કયુ" છે, તે શિવાયનું ખાકીનુ તમામ કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનુ' જ છે. અર્થાત્ પૃથ્વીકાયિકના થન પ્રમાણેજ છે. हवे सूत्रार यस वेधभां नुहाया मतावतां हे छे है- 'भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवगगणाइ" लवनी अपेक्षाथी हायस वेध सहियां धन्यथी मे लवाने भरतां सुधीनेो भने 'उक्कोंसेणं अस खेज्जाई भवग्गहणाई ष्टथी ते असंख्यात नवाने भरवां सुधीनु छे तथा 'कालादेसेणं जहदो अमुहुत्ता उक्कोंसेणं सखेज्जं काल' अजनी अपेक्षाथी ते ध न्यथी मे अ ंतर्मुहूर्त'नो छे भने उत्सृष्टथी सांध्यात अस ३५ छे. 'एवइय' जाव करेज्जा' मा रीते ते मे द्रियवाणी बने पृथ्वी अयिमा उत्पन्न થવાને ચાગ્ય છે, ત્યાં ઉત્પન્ન થઈને એટલા કાળ સુધી એ ઈંદ્રિયની ગતિનુ’ - શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫ ·
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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