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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २४ सू०२ सनत्कुमारदेवोत्पत्तिनिरूपणम् ५०९ 'विजय वेजयं तजयंतअपराजियदेवा णं भंते! कओहिंतो उनवज्जंति' विजय वैजन्तजयन्तापरा । जित देवाः खलु भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते इत्यादि प्रश्नः । उत्तरमाह - 'एस चेत्र' इत्यादि । 'एस चैव वत्तनया निरवसेसा जाव अणुबंधोत्ति' एषैव वेदेवानां या वक्तव्यता सैव निरवशेषा भणितव्या यावदनुबन्ध इति उपपातादारभ्यानुबन्धान्तः सर्वोऽपि सन्दर्भों निरवशेषोऽत्र ज्ञातव्य इति । 'नवर पदम संघयणं' नवरं प्रथमं संहननं वज्र ऋषमनाराचरू प्रथम संहननवन्त एवोत्पद्यन्ते विजयादिविमानेष्विति ग्रैवेयकापेक्षया वैलक्षण्यमिति । 'सेसं तहे ।' शेष ं संहननातिरिक्तं सर्वं यथैव-प्रवेयक देवेति । कायसंवेधं दर्शयति- 'मवादेसेणं' इत्यादि अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - विजयवे जयंत जयंत अपराजियदेवा णं भंते! कहिंतो उववज्जंति' हे भदन्त ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये देव कहाँ से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'एस चैव वक्तव्त्रया निरवसेसा जाव अणु धोत्ति' हे गौतम! ग्रैवेयक देवों की जो यह वक्तव्यता कही गई है वही सम्पूर्ण रूप से यहाँ पर भी यावत् अनुबन्ध तक की कहनी चाहिये । अर्थात् उपपान से लेकर अनुबन्ध द्वार तक का समस्न सन्दर्भ यहां कहने योग्य है ऐसा जानना चाहिये । 'नवरं पढमं संघयण' परन्तु ग्रैवेयक की वक्तव्यतान्तर्गत संहनन की वक्तव्यता से यहां की संहनन की वक्तव्यता में भिन्नता है क्यों कि यहां पर केवल एक वज्रऋषभनाराच संहनन ही होता है, अर्थात् वज्रऋष मनाराच संहननवाले मनुष्य ही यहां पर उत्पन्न होते हैं । हवे गौतमस्वाभी प्रलुने खेवु पूछे छे है -- ' विजय वे जयंत जयंत अपरा जियदेवा णं भंते ! कओहिं तो उनवज्जति' से लगवन् विश्यवैश्यन्त भने भ्यन्त અપરાજીત એ દેવો ચાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु डे छे ! –डे गौतम! 'एस चैव वत्तव्वया निरवसेसा जाव अणुबंधोत्ति' હૈ ગૌતમ ! ત્રૈવેયક દેવોના સંબંધમાં જે આ કથન કરવામાં આવ્યુ છે, એજ કથન સંપૂર્ણ પણાથી અહીંયાં પણ યાવત્ અનુબંધના કથન સુધી કહેવુ જોઈ એ અર્થાત્ ઉપપાતથી લઇને અનુબંધ દ્વાર સુધીનું સમસ્ત કથન અહીંયાં કહેવું लेहाथो तेम समन्वु 'नवरं पढमं संघयणं' परंतु ग्रैवेय संबंधी अथनभां આવેલ સહનન સંબંધી કથન કરતાં અહીંના સહનન સંબંધી કથનમાં જુદાપશુ આવે છે, કેમકે-અહીંયાં કેવળ એક વઋષભનારાચ સહનન જ હોય છે, અર્થાત્ વઋષભનારાચ સહુનનવાળા મનુષ્ય જ અહીંયાં ઉત્પન્ન થાય છે, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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