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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २४ सू०१ सौधर्म देवोत्पत्तिनिरूपणम् ४६७ Sपि ते जीवा न भवन्तीति भावः णाणीव अन्नागी वि' ज्ञानिनोऽपि भवन्ति तथा अज्ञानिनोऽपि भवन्ति 'दो गागा दो अन्नाणा नियमं' द्वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने नियमतः तेषां भवतः 'ठिई जहन्नेगं पलिओ मं' स्थितिस्तेषां जीवानां सौधर्मदेव लोके जघन्येन पल्योपमम्, जघन्या स्थितिः पल्पोपमममाणा भवतीत्यर्थ- तथो - 'उक्को - सेण तिन्नि पलिमाई' उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पल्योपमत्रयात्मिका उत्कृ ष्टा स्थितिः भवतीत्यर्थः । ' एवं अणुबंधो वि' एवं स्थितित्रदेव जघन्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमात्मकः त्रिपल्यो षमात्मकश्च भवति अनुबन्ध इति । 'सेसं तहेन' शेष सर्वमपि परिमाणादिद्वारजातं तथैव ज्योतिष्कमकरणकथितमेव ग्राह्यम् । 'नवर' कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओमाई' नवरं काला देशेन जघन्येन द्वे पल्योपमे दृष्टि नहीं होते हैं । 'णाणी वि अन्नाणी वि' वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं 'दो नाणा दो अन्नाणा नियम' इनके ज्ञान. दशा में नियम से दो ज्ञान होते हैं और अज्ञानदशा में नियम से दो अज्ञान होते हैं 'ठिई जहन्नेणं पलिओवमं' स्थिति इनकी जघन्य से एक पत्थोपम की होती है। तथा 'उक्को सेणं तिन्नि पलिओ माई ' उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की होती है । 'एवं अणुबंधो वि' स्थिति के अनुसार यहां अनुबंध भी जघन्य और उत्कृष्ट से एक पल्योपम का और तीन पल्योपम का होता है 'सेस तहेब' बाकी का ओर सब परिमाण आदि द्वारों का कथन ज्योतिष्क प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही कहना चाहिये 'नवरं कालादेसेण जहन्नेणं दो पलिओमाई' परन्तु काल की अपेक्षा काय संवेध जघन्य से दो पल्पोपम का है इनमें एक दृष्टिवाणा होता नथी. 'णाणी वि' अन्नाणी वि' तेथे ज्ञानी पशु होय छे, रमने अज्ञानी पायु होय छे. 'दो नाणा दों अन्नाणा नियमं तेमनी ज्ञान દશામાં નિયમથી એ જ્ઞાન હાય છે, અને અજ્ઞાન દશામાં નિયમી એ ज्ञान होय . 'ठीई जहन्नेणं पलिआवमं ' तेमनी स्थिति भघन्यथी खे पढ्योपभनी छे. तथा “उक्कोसेणं तिन्नि पलिश्रोमाई' उत्कृष्टथी यस्योपमनी छे. 'एवं अणुबंधो वि' स्थितिना उथन अमाले अहिं अनुषध पशु धन्य भने उत्सृष्टथी ! पत्येोभने। भने यु यस्योपमना है, 'सेसं રહેલ' બાકીનુ પરિમાણુ વિગેરે દ્વારા સંબંધી ખીજુ તમામ કથન યેતિષ્ઠ अरमां ने प्रसाधुं छे, ते प्रमाणे छे. नगर कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओ माइ " परंतु अजनी अपेक्षाथी अयसंवेध धन्यथी मे पयोभने શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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