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________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०१ पृथ्वीकायिकानामुत्पातनिरूपणम् ३१ -एतावन्तमेव कालं गमनागमने कुर्यादिति कायसंवेधान्तः षष्ठो गमः ६ इति । सप्तमगम दर्शयितुमाह-'सो चेव अप्पणा' इत्यादि, 'सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल. ट्टिइओ जाओ' स एव आत्मनोत्कृष्ट कालस्थितिको जातः, स एव पृथिवीकायिको जीवो यदि आत्मना-स्वयमेव उत्कृष्ट कालस्थितिकः पृथिवीकायो जातः तदा'एवं तइयागमसरिसो निरवसेतो भाणियन्यो' एवं तृतीयगमसदृशः निरवशेषो भणितव्यः तदिह सप्तमगमे निरवशेषः सर्वोऽपि तृतीयगम एव वक्तव्यः । तृतीयगमा पेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदिह दर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं अप्पणा से ठिई जहन्नेण बावीसं वाससहस्साई' नारम्-केवलम् आत्मना तस्य स्थितिजघन्येन द्वाविंशतिकाल तक वह उसमें गमनागमन करता है यहां जो काय संवेध उत्कृष्ट से चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८ हजार वर्ष का कहा गया है वह जघन्य स्थिति वाले पृथिवीकायिक का और उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथिवीकायिक का वहां चार बार उत्पन्न होने से कहा गया है। अतः २२ हजार को चार से गुणा करने पर ८८ हजार आ जाते हैं। इस प्रकार से यह छठा गम है। __ सातवां गम इस प्रकार से है-'सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल. टिइओ जाभो' वही पृथिवीकायिक जीव यदि उत्कृष्ट काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न हुआ है तो इसके विषय में यहां पर 'तइय गमसरिसो निरवसेसो भाणियन्यो' सप्तम गम में सम्पूर्ण रूप से तृतीय गम ही वक्तव्य है। परन्तु जिस बात में वहां के कथन से भिन्नता है वह इस प्रकार से है-'नवरं अप्पणा से ठिई जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई, જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમના ગમન કરે છે. અહિયાં કાયવેધ ઉત્કટથી ચાર અંતમહતી અધિક ૮૮ અઠયાસી હજાર વર્ષ ને કહ્યું છે. તે જઘન્ય સ્થિતિવાળા પૃથ્વિકાયિક અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા પૃથ્વિકાયિક ત્યાં ચાર વાર ઉત્પન્ન થવાને કારણે કહેવામાં આવેલ છે. જેથી બાવીસ હજારને ૪ ચાર ગણા કરવાથી ૮૮ અઠયાસી હજાર થઈ જાય છે, मरीत ॥ छटो आम हो छ. वे सातमा मनु ४२५ ४२१मा आवे छे..--'सो चेव अप्पणा उक्कोस. कालट्रिइओ जाओ' स वीयि 06ष्ट जनी स्थितिथी सत्पन्न थाय छ त त सधमा मिडिया 'तइयगमसरिसो निरवसेसो भाणियव्वा' । સાતમે ગમ સંપૂર્ણ રીતે ત્રીજા ગમ પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું. પરંતુ २ पातमा त्यांना ४थन ४२di मत२-३२१२ छ त मा प्रमाणे छ. 'नवर' अप्पणा से ठिई जहन्नेणं बावीस वाससहस्साई उक्कोसेण वि बावीस वाससह શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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