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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ ३.२० सु०२ शर्कराममायानारकोत्पत्यादिकम् २३७ एवं उत्तरमाह - ' एवं चेच' इत्यादि, 'एवं चेव णत्र गमगा' एवमेव नव गमकाः, यथा रत्नमभायां नव गमकाः कथिता स्तथैव अनारकपृथिव्यामपि नव गमका वक्तव्याः । केवलं पथमनारकपृथिव्यपेक्षया यद्वैचक्षण्यं सप्तम्यां तद्दर्शयति'बरं' इत्यादि, 'नवरं' ओगाहणा लेस्सा ठिई अणुबंधा माणिकन्या' नवरम् अवगाना aser forfengधाः पूर्वापेक्षया बैलक्षण्येन भणितव्याः - शातव्याः, अन्यत्सर्वं परिमाणादिकं रत्नप्रभामकरणवदेव ज्ञातव्यमिति' संवेहो' कायसंवेधस्तु 'भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' भवादेशेन-मवापेक्षया जघन्येन द्वे एव दो भवग्रहणे भवतः । 'उक्को सेणं छन्भवरगहणाई' उत्कर्षेण ग्रहणानि 'कालादेसेणं जास्ने बावीसं सागरोवमाई अंतोट्ठिएस उबवज्जेज्जा' वह कितने काल की स्थितिवाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चाँ में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'एवं चेव णव गम' हे गोतम ! जिस प्रकार से रत्नप्रभा में नौ गमक कहे गये हैं । उसी प्रकार से अवः सप्तमी पृथिवी में भी वे कहना चाहिये । परन्तु प्रथम नारकपृथिवी की अपेक्षा जो यहां के नौ गमकों में भिन्नता है उसे प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार 'णवरं ओगाहणा लेस्सा लिई अणुयंधा माणिकन्या' ऐसा सूत्र कहते हैं - इस कथन द्वारा उन्होंने यह प्रकट किया है- यहां सप्तम पृथिवी में अवगाहना लेश्या स्थिति और अनुबंध इनको लेकर भिन्नता है बाकी के परिमाण आदि द्वारों का कथन रत्नप्रभा प्रकरण के जैसा ही है। 'संवेहो भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' कायसंवेध भव की अपेक्षा जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने रूप है और उत्कृट से 'उको सेणं नवग्गहणाई' छभवों को ग्रहण करने wedding સ્થિતિવાળા પંચેન્દ્રિય તિય ચામાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलु छे !-' एवं चैव णव गमगा' हे गौतम! सेन रीते अधः सप्तभी પૃથ્વીમાં પણ એ નવ ગમેા કહેવા જોઇએ. પરંતુ પહેલીનાંક પૃથ્વી કરતાં અહિયાં નવ ગમેામાં જે જુદાપણુ' છે, તે બતાવવા માટે સૂત્રકાર 'वर' ओगाहणा लेस्सा ठिई अणुबंधा भाणियन्त्रा' मा प्रभानुं सूत्र हे छे. આ સુત્રપાડથી તેએએ એ સમજાવ્યુ` છે કે-અહિયાં સાતમી પૃથ્વીમાં અવગાહના, લેફ્સા, સ્થિતિ અને અનુમધના સબધમાં જુદાપણું છે બાકીના परिमाणु विगेरे द्वारोनुं उथन रत्नमला पृथ्वीना अ२ प्रमाणे छे. 'स'वेो भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाइ" अयसवेध अवनी अपेक्षाथी धन्यथी मे भवाने अड ४२१३५ छे भने उत्ष्टथी 'चक्कोसेणं छ भवग्गहणाई' छ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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