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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०६ नागकुमारेभ्यः समुत्पादादिनि० १६७ , णीयाः । 'वर' ठिई अणुबंधो य जहन्नेणं साइरेगं पलियोवमं' नवरम् केवलम् अन्य सर्व वैमानिकसौधर्म देवस्येव वक्तव्यम् स्थित्यनुबन्धविषये वैलक्षण्यमस्ति, स्थितिरनुबन्धश्च जघन्येन सातिरेकं पल्योपम 'उक्को सेणं सातिरेगाई दो सागरोमाई' उत्कर्षेण सातिरेको द्वि सागरोपौ जघन्येन स्थितिः सातिरेकपल्योपमा यथोत्कृष्टतः सातिरेक द्वि सागरोपमाचेति, एवमेव अनुबन्धोऽपि । 'से सं तं चैव' शेषम् - स्थित्यनुबन्धातिरिक्तं सर्वमपि परिमाणादिकायसंवेधान्तं तदेव - सौधर्म देवकरणवदेवेति भावः । ' सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरई' तदेवं } उसी ढंग से निरूपित हुए हैं ऐसा जानना चाहिये, सौधर्म देव और ईशान देव के नौ गमों में यदि कोई अन्तर है तो वह स्थिति और अनुबन्ध द्वारों में हैं - यही बात 'णवरं ठिई अणुबंधो य जहन्नेणं साइ रेगं पलिओम" सूत्रकार ने इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट की है - यहां स्थिति और अनुबन्ध जघन्य से सातिरेक पल्योपमरूप और उत्कृष्ट से सातिरेक दो सागरोपम रूप है । अर्थात् स्थिति जघन्य से सातिरेक पत्थोपम रूप है और उत्कृष्ट से सातिरेक दो सागरोपम रूप है, इसी प्रकार से अनुबन्ध भी जघन्य से सातिरेक एक पल्योपम रूप और उत्कृष्ट से सातिरेक सागरोपम रूप हैं । 'सेस तं चेव' इस प्रकार स्थिति और अनुबन्ध से अतिरिक्त समस्त परिमाण आदि कायसंवेधान्त तक का कथन सौधर्म देव के प्रकरण के जैसा ही यहां है ऐसा जानना चाहिये, 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति जाव विहरइ' हे भदन्त ! जैसा यह सब कथन आप देवानुप्रिय ने किया है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ इस प्रकार कहकर गौतम ने भगवान् को वन्दना की और उन्हें द्वार भने अनुबंध द्वारना सभधभां छे, खेन वात 'णवरं ठिई अणुबंधो य जहन्नेणं साइरेग पलिओवमं' सूत्रारे मा सूत्रपाठेथी स्पष्ट रेस छे. मडियां સ્થિતિ અને અનુષંધ જઘન્યથી સાતિરેક એ પલ્યાપમ રૂપ અને ઉત્કૃષ્ટથી સાતિરેક એ સાગરોપમ રૂપ છે. આ રીતે અનુબંધ પણ જઘન્ય અને ઉત્કૃ ष्टथी मे पस्योपम अने मे सागरोपम ३५ छे. 'सेंस तं चेव' मा रीते સ્થિતિ અને અનુષધ શિવાયનું પરિમાણુ વિગેરે કાયસ વેધ સુધીનું કથન સૌધર્મ દેવના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યુ છે એજ પ્રમાણે मडियां पशु समभवं 'सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ' डे भगवन् આ સઘળું કથન જે પ્રમાણે આપ દેવાનું પ્રિયે કહ્યું છે તે સઘળું સથા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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