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________________ ११४ भगवतीसूत्रे 'अयं जीवः सचेतनोऽयम जीवोऽचेतनः' इत्येवं रूपेण जीवाजीवादिसकलपदार्थानां ज्ञाता 'जाव विहर' यावद विहरवि, इह यावत् पदेन एतेषां श्रावक विशेषणानां संग्रहणम् उद्धपुण्णपा वे आसव संचरनिज्जर कियाहिगरण बंधप्पमोक्ख कुसले' इत्यादि । एतेषां व्याख्यानं भगवती सूत्र द्वितीयशतकपञ्चमोद्देश के द्रष्टव्यम् । तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीर : 'अम्नया' अन्यदाअन्यस्मिन् काले 'कयाइ' कदाचित् 'पुत्राणुपुवि' पूर्वानुपू तीर्थकरपरम्परया 'चरमाणे' चरन्, गामाणुगामं दुइज्जमाणे ग्रामानुग्रामं द्रवन् एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरक्रमेण गच्छन् 'जाब समोसढे' यावत् समवगृतः विहारं कुर्वन् गुणशिलको द्याने समागतः । तत्र च भगवतः समवसरणं जातमिति 'परिसा जाव पज्जुवास ' परिषत् यावत् पर्युपास्ते भगवतः समवसमणानन्तरं परिषत् नानादिग्भ्यः समागयह अच्छी तरह से जानता था कि जीव सचेतन अर्थात् चेतनालक्षण. वाला है और अजीव अचेतन है । इस प्रकार यह जीव अजीव आदि सकल पदार्थों का ज्ञाता था । 'जाव विहरह' में जो यावत् पद आया है उससे 'उबलद्वपुण्णपावे, आसवतंत्ररनिज्जर किरियाहिगरणे बंधप्पमोक्खकुसले' इत्यादि इन श्रावक विशेषणों का संग्रह हुआ है। इन पदों की व्याख्या भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के पंचम उद्देशक में की जा चुकी है । अतः वहीं से देख लेना चाहिए। 'तए णं समणे भगवं महावीरे' इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर 'अन्न्या कया' किसी एक समय 'पुच्चाणुपुवि' तीर्थंकर परम्परा के अनुसार 'चरमाणे' बिहार करते हुए । 'गामाणुगामं दूइजमाणे' एकग्राम से दूसरे ग्राम में धर्मोपदेश करते हुए । 'जाब समोसढे' यावत् गुगशिलक उद्यान में पधारे । ' परिसा जाव पज्जुवासइ' प्रभुका आगमन सुनकर नाना दिशाओं से अनेक जनों का १.जे। छे. भने अलव अयेतन छे. "जाव विहरइ" मे पहमां ने यावत् यह व्यावस छे, तेथी “उवलद्ध पुण्णगवे आसवसंबर निज्जर किरिया हिरणे बंधमोक्ख कुस ले" ઇત્યાદિ શ્રાવકના વિશેષણ્ણાના સ’ગ્રહ થયા છે. આ પદેશની વ્યાખ્યા ભગવતી સૂત્રના श्री शतना पांथमां उद्देश मां वामां भावी छे तेथी ते लेई सेवी, "तए णं समणे भगवं महावीरे' ते पछी श्रमण लगवान् महावीर स्वाभी "अन्नया कयाइ" अ ो समये "पुव्वाणुपुव्विं ' तीर्थ उरनी પરંપરા અનુસાર "चरमाणे” विहार रत ४२ “गामाणुगामं दूइज्माणे " मे गाभथी બીજા ગામમાં ધર્મોપદેશ કરતાં કરતાં 'जाव समोसढे" यावत् गुणुशिस Cद्यानभां पधार्या “परिखा जाब पज्जुवासई" असुनुं भागमन सांलजीने भने દિશાએથી જનસમૂહ રૂપી પરિષદ્ પ્રભુની પાસે આવી અને પ્રભુને વંદના શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩ ·
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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