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________________ ९६८ आचारांगसूत्रे " 'नो तं सायए नोत' नियमे' नो तम् बगाद्युद्वर्तनं कुर्वन्तं गृहस्थम् आस्वादयेत् -‍ [- मनसा अभि लषेत्, नोवा तम् - गालनं कुर्वन्तं गृहस्थ नियमयेत् कायेन वचसा वा प्रेरयेत्, नानुमोदयेदित्यर्थः, 'सेसिया परो कार्यसि' तस्य भावभिक्षुकस्य स्यात् - कदाचित् परो-गृहस्थः काये - शरीरे 'वर्ण वा गंड वा अरई वा पुलइयं वा भगंदलं वा' वर्ण वा गण्डं वा अरति वा पुलकं 'उल्लोदिज वा उब्बलिज वा' उद्वर्तन या उद्बलन करे तो उस को अर्थात् गृहस्थ के द्वारा किये जानेवाले उस लोधादि चूर्णों से उद्वर्तनादि को परक्रिया विशेष होने से वह जैन साधु 'नो तं सायए आस्वादन नहीं करें याने उस की मन से अभिलाषा नहीं करे और 'नो तं नियमे' तन वचन से भी उस के लिये गृहस्थ श्रावक को प्रेरणा नहीं करे याने अनुमोदन या समर्थन नहीं करें, क्योंकि इस प्रकार गृहस्थ श्रावक द्वारा किये जाने वाले शरीरस्थ व्रणादि का उदवर्तनादि क्रिया परक्रिया विशेष होने से कर्म बन्धनों का कारण मानी जाती है इसलिये कर्मबन्धों से छुटकारा पाने के लिये दीक्षा और प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जैन साधु इस प्रकार के अपने शरीर के अन्दर व्रणादि के उद्वर्तनादि के लिये गृहस्थ श्रावक को तन मन वचन से प्रेरणा नहीं करें । फिर भी जैन साधु के व्रणादि को गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जानेवाले अत्यन्त शीतोदकादि से प्रक्षालन को भी परक्रिया विशेष होने से मना करते हैं 'से सिया परो कार्यसि वर्ण वा उस पूर्वोक्त जैन साधु के शरीर में व्रण को या 'गंडं वा' गण्ड को या 'अरई वा' अरति अर्थात् अर्श को या 'पुलयं वा' पुलक नाम के व्रण विस्फोटक को या 'भगदलं वा' भगन्दर नाम के गुह्यस्थान में होने वाले अत्यन्त भयंकर रोग को चीरफार करने के बाद यदि पर गृहस्थ श्रावक 'उल्लोदिज्ज वा, उब्वल्लिज्ज वा' उद्वर्तना अथवा उन हरे तो थे गृहस्थ श्राव द्वारा वामां आवता सोहि यूना उद्धतनाहिनु' 'नो त' सायए' साधुये आस्वादन १२ नहीं, मेटले } भनथी तेनी अभिलाषा उरवी नहीं तथा नो त नियमे तन अने वथનથી પણ તેમ કરવા ગૃહસ્થ શ્રાવકને પ્રેરણા કરવી નડી. અર્થાત્ તેનું અનુમેાદન કે સમર્થાંન કરવું નહીં'. કેમ કે-ખા પ્રમાણે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા શરીરના ત્રણ વિગેરેના ઉદ્ભનાદિ ક્રિયા પરક્રિયા વિશેષ હાવાથી કબંધનું કારણ માનવામાં આવેલ છે. તેથી ક્રમ બ ધનાથી છૂટવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા સાધુએ આ પ્રકારના પાતના શરીરની અંદર થનારા ત્રગ઼ાદિના ઉદ્દતનાદિ માટે ગૃહસ્થ શ્રાવકને તન મન અને વચનથી પ્રેરણા કરવી નહીં. હવે સાધુના શરીરસ્થ ત્રણાદિનું ગૃહસ્થ દ્વારા કરવામાં આવતા ઠંડા પાણીથી પ્રક્ષાલન विगेरे रवाना निषेध ४थन उरे छे. 'से सिया परो कार्यसि वर्ग' वा' से पूर्वोस्त लाव साधुना शरीरमां प्रगुने अथ | 'गंडवा' ग'डने अथवा 'अरई वा' भरति अर्थात् रसने अथवा 'पुलयं धा' युझ नामना व विस्टने अथवा 'भदलं वा' लगंडर नामना શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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