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________________ ९४२ आचारांगसूत्रे साधोः निष्प्रतिकर्मशरीरस्य स्यात्-कदाचिद् यदि परो-गृहस्थः पादौ 'अन्नयरेण धृवणजाएण' अन्यतरेण-एकतरेण धूपनजातेन-धूपेन अगुरुगुग्गुलादि सुगन्धिद्रव्यविशेषेण 'धूविज्ज वा पधृविज्ज वा' धूपयेद् वा-कश्चिद् वा धूपितौ कुर्यात् , प्रधूपयेद् वा-अधिक वा सुधूपितौ कुर्यात् पादौ इति शेषः, 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-धृपयन्तं प्रधपयन्तं वा गृहस्थम् आस्वादयेत्-मनसा अभिलषेत् , नो वा तम्-पादौ धूपयन्तं प्रधृपयन्तं वा गृहस्थम् नियमयेत्-प्रेरयेत्-कायेन वचसा वा अनुमोदयेत् , तस्य गृहस्थस्य धूपनक्रियां गृहस्थ श्रावकों द्वारा किये जाने वाले चन्दनादि विलेपन को मन से स्वीकार नहीं करे और वचन तथा काय से उस का समर्थन या अनुमोदन नहीं करें क्योंकि इस प्रकार का विलेपनादि क्रिया कर्मबन्ध करती है और कर्मबन्ध होने से जैन मुनि को संसार से छुटकारा नहीं हो सकेगा इसलिये इस की अनुमति गृहस्थ श्रावकों को नहीं दे, या इस के लिये उस को प्रेरणा भी नहीं करें। अब दूसरे भी प्रकार से परक्रिया विशेष का निषेध करते हैं-'से सिया परो पायाई अन्नयरेण धूवणजाएण' उस जैन साधु के चरणों को यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक श्रद्धाभक्ति से धूप जात अर्थात् धूप अगरबती वगेरह से या गुग्गुलादि सुगन्धित द्रव्य विशेष से 'धूविज वा' थोडा सा धूपित अर्थात् सुवासित करे या 'पधूविज वा' अधिक सुवासित करे तो उस गृहस्थ श्रावकों के द्वारा किये जाने वाले पादों को धूपादि से सुधूपना क्रिया रूप पर क्रिया 'नो तं सायए' जैन मुनि महात्मा मन से आस्वादन अर्थात् अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे वचन काय से भी उस सुधूपनादि क्रिया का अनुमोदन या समर्थन नहीं करें क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावकों द्वारा किये जानेवाले जैन સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ આ રીતે ગૃહસ્થ શ્રાવકો દ્વારા કરવામાં આવનારા ચંદનાદિ વિલેપનને મનથી સ્વીકાર કરવો નહીં. અને વચનથી અને કાયથી તેનું સમર્થન કે અનુમોદન કરવું નહીં. કેમ કે આ પ્રકારની વિલેપનાદિ ક્રિયા કમબંધ કરે છે. અને કર્મબંધ થવાથી સાધુને સંસારથી છુટકારો થતું નથી. તેથી તેની અનુમતિ આપવી નહીં અથવા તેને માટે તેની પ્રેરણા પણ કરવી નહીં. वे प्रशन्तरथी ५२ठियाना निषेध ४२ छे-'से सिया परो पायाइं अन्नयरेण' से साधुन। ५ोन ने ५२ अर्थात् १७२५ श्रा१४ श्रद्धालतिथी मने ॥२ना 'धूवणजाएण धूविज्ज वा' ધૂપજાત અર્થાત્ ધૂપ અગરબત્તિ વિગેરેથી અથવા ગુગળ વિગેરે સુગર્થિત પદાર્થ વિશેષથી था। धूपित अर्थात सुवासित 3रे 404। 'पधूविज्ञ वा' पधारे सुवासित १२ तो मे ગૃહસ્થ શ્રાવકો દ્વારા કરવામાં આવનારી પગેને ધૂયાદિથી સુવાસિત કરવારૂપ પરક્રિયાને 'नो तं सायए' साधुसे भनथी मावान अर्थात् मिसाषा ४२वी नही मने 'नो तं नियमे' क्यनथी यथा ५५ मे सुसित विगेरे यानु अनुमान है समय न કરવું નહીં. કેમકે આ પ્રકારના ગહથ શ્રાવકો દ્વારા કરવામાં આવનારા સાધુના श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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