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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ ० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः मोदयेदित्यर्थः 'से सिया परो पायाइं अन्नयरेण विलेवणजाएण' तस्य-भावसाधोः स्याद्यदि कदाचित् परः-श्रावको वा गृहस्थः पादौ अन्यतरेण-केनापि एकतरेण विलेपनजातेनविलेपन द्रव्येण 'आलिंपिज्ज वा विलिंपिज्ज वा' आलिम्पेद वा-किश्चिलेपनं कुर्याद, विलिम्पद वा-अधिकं वा लेपनं कुर्यात् तहिं 'नो तं सायए नो तं नियमे नो तम्-आलेपनं कुर्वन्तम् विलिम्पयन्तं वा गृहस्थम् आस्वादयेत-मनसा अभिलषेत् , नो वा तम्-आलिम्पयन्तं विलिम्पयन्तं वा गृहस्थम् नियमयेत्-प्रेरयेत् 'से सिया परो पायाई' तस्य-भाव वचन एवं कर्म से अनुमोदन या समर्थन नहीं करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के पादप्रक्षालनादि करवाने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करनेवाले साधु मुनि महात्मा उस की अभिलाषा नहीं करें। फिर भी दूसरे ढंग से जैन मुनि महात्माओं के चरणों को चन्दनादि विले. पन द्रव्यों से विलेपन गृहस्थ श्रावक करना चाहे तो उस को भी जैन साधु स्वीकार नहीं करें यह बतलाते हैं-'से सिया परो पायाइं अन्नयरेण विलेवण जाएण' उस जैन साधु के पादों को यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक श्रद्धा भक्ति से अन्यतर अर्थात् किसी भी एक विलेपन चन्दनादि द्रव्यों से 'अलिंपिज वा विलिंपिज वा' आलेपन या विलेपन करे तो उस चन्दनादि विलेपन द्रव्य से पादों के विलेपनादि क्रिया रूप पर क्रिया को जैन साधु 'नो तं सायए' मन से आस्वादन अर्थात अभिलाषा नहीं करें, एवं 'नो तं नियमे वचन और कर्म से भी उस विलेपनादि क्रिया का अनुमोदन या समर्थन नहीं करें क्योंकि गृहपति गृहस्थ श्रावकों के द्वारा किये जानेवाले इस प्रकार के त्यागशील पूर्ण तपस्वी जैन साधु के चरणों का चन्दनादि विलेपन द्रव्यों से आलेपनादि क्रिया को परक्रिया होने से उस को कर्म बन्धन के कारण माने जाने से संयम को विराधना होगी इसलिये संयमपालन करने वाले जैन साधु मुनि महात्मा इस प्रकार के રૂપ પરક્રિયાનું મન, વચન, અને કર્મથી અનુમોદન કે સમર્થન કરવું નહીં. જૈન સાધુ મુનિના પગને ચંદન વિગેરે વિલેપન પદાર્થથી વિલેપન કરે તેને સાધુએ न स्वी॥२॥ विषे ४थन 32 छ. 'से सिया परो पायाई अन्नयरेण विलेवणजाएण' साधुन। ५ोन ने ५२ अर्थात् २५ १४ श्रद्धा मस्तिथी ५ नाहि द्रव्यापी 'आलिंपिज्ज वा' विलिंपिज्ज वा' मालेपन , विलेपन ४२ ता से यह विवेपन द्रव्यथी ५शानी विवेपन या३५ ५२डियानुसाधुये 'नो तं सायए' भनथी मापान अर्थात् छ। ४२वी नही तथा 'नो तं नियमे' क्यनयी मन भयो ५ मे विayile यानु અનુમોદન કે સમર્થન કરવું નહીં કેમ કે-ગૃહસ્થ શ્રાવકે દ્વારા કરવામાં આવનારા આવા પ્રકારના ત્યાગશીલ સાધુના પગોનું ચંદનાદિ વિલેપન દ્રવ્યથી આલેપનાદિક્રિયા પરક્રિયા હોવાથી તેને કર્મબંધનું કારણ માનવામાં આવ્યાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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