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________________ ९१६ आचारांगसूत्रे वा' डमरान् वा-परराष्ट्र विरोधिशब्दान् 'दोरजाणि वा' द्विराज्यानि वा-नृपतिद्वय विरोधिशब्दान् वेररज्जाणि वा' वैरराज्यानि वा-परस्परवैरप्रयुक्तविरोधिशब्दान् 'विरुद्धरज्जाणि वा विरुद्धराज्यानि वा-विरोधिराज्यद्वयशब्दान् 'अन्नयराई वा तहपगाराई विरूवरूवाई' अन्यतरान् वा-तदन्यान् वा तथाप्रकारान्-फळहादिशब्दसदृशान विरूपरूपान्-नानाविधान 'साई' शब्दान् श्रोतुमिच्छया 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' नो अभिसंधायेद्-मनसि संडल्पं न कुर्यात् गमनाय-गन्तुं न विचारयेत् 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी ही अनेक राजा महाराजा के आपस में मतमतान्तर होने से उत्पन्न विरुद्ध शब्दों को या 'डमराणि वा' डमर अर्थात् परराष्ट्र में याने दूसरे राज्यों के अंदर परस्पर मतमतान्तर होने से उत्पन्न विरुद्ध शब्दों को या 'दो रजाणि वा' द्विराज्य अर्थात् दो राज्यों के नृपति के विरुद्ध शब्दों को या 'वेररजाणि वा' वैरराज्य अर्थात् परस्पर वैर प्रयुक्त उत्पन्न विरोधी शब्दों को या "विरुद्धरजाणि वा' विरुद्ध राज्य अर्थात् विरोधी राज्यों के शब्दों को या 'अन्नयराई वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाई सद्दाई' इस प्रकार के दूसरे भी नाना प्रकार के कुत्सित निंदा सूचक शब्दों को सुनने की इच्छा से 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' उपाश्रय से बाहर किसी भी दूसरे स्थानों में जैन मुनि महात्माओं को नहीं जाना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के कलहादि शब्दों को सुनने से रौद्र भावना उत्पन्न हो सकती है और रौद्र भावना उत्पन्न होने से संयम की घिराधना होगी और आत्मा की भी विराधना होगी इसलिये आत्म कल्याण करने वाले मुनि महा. स्माओं को संयम पालनार्थ इस प्रकार के कलहादि शब्दों को नहीं सुनना चाहिये, અર્થાત્ સ્વરાષ્ટ્ર ચક્રમાં રાજાઓના પરસ્પરના વિધિ શબ્દોને એટલે કે પિતાના જ્યમાં જ અનેક રાજા મહારાજાઓના પરસ્પર વિવાદ હોવાથી થનારા વિરૂદ્ધ શબ્દોને અથવા 'डमराणि वा' भ२ अर्यात् ५२२।ट्रमा मेट है अन्य २ यानी म४२ मे भीतर विवाहयाथी अपनयना२। शहोने मथ4। 'दो रज्जाणि वा' दिय मेले मे सन्याना जमानी वि३.वना शहोने अथवा 'वेररज्जाणि वा' वैश्य मेटले ३ ५२२५१ ३२थी प्रयुत थता विधि होने २५04। 'विरुद्धरज्जाणि वा' (१३ २०४५ मेटले वि. धियोना शहाने अथवा 'अण्णयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई सदाइ' मा। પ્રકારના બીજા અનેક પ્રકારથી કુત્સિત નિંદા સૂચક શબ્દોને સાંભળવાની ઈચ્છાથી 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' पाश्रयनी महा२ ३।४ ५ मान्य स्थानमा साधु सावाये જવું નહીં. કેમકે–આ પ્રકારના કલહાદિથી ઉત્પન્ન થનારા શબ્દોને સાંભળવાથી રૌદ્રભાવના ઉત્પન્ન થાય છે. અને રૌદ્ર ભાવના ઉત્પન્ન થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. અને આત્માની પણ વિરાધના થાય છે તેથી આત્મકલ્યાણ કરવાવાળા મુનિઓએ સંયમ પાલન માટે આવા પ્રકારના કલહાદિના શબ્દોને સાંભળવા નહીં. श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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