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________________ आचारांगसूत्रे सि' अन्यतरस्पिन वा-अन्यस्मिन वा तथाप्रकारे-उपर्युक्तरूपे स्थण्डिले 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' नो उच्चारप्रस्रवणम्-मलमूत्रपरित्यागं व्युत्सृजेत-कुर्यात्, ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी बा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण यंडिलं जाणेज्जा' स यत् पुनः स्थण्डिलं जानीयात् इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा' इह खलु-स्थण्डिले गृहपतिर्वा गृहपतिपुत्रा वा 'कंदाणि वा जाब हरियाणि वा' कन्दानि वा यावत्-मूलानि वा बीजानि वा पुष्पा. सुवासित या सुगन्धित किया है इस प्रकार जानले तो 'अनयरंसि व तहप्पगारंसि थंडिलंसि' इस तरह के स्थण्डिल में 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' मलमूत्र का परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के साधु के निमित्त तैयार किये हुए स्थण्डिल में जीवहिंसा की संभावना होने से उस में मलमूत्र के परित्याग करने से साधु और साध्वी को संयम की विराधना होगी इसलिये इस प्रकार के स्थण्डिल में संयमपालन करने वाले साधु और साध्वी को मलमूत्र का परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि संयमपालन करना ही साधु और साध्वी का परम कर्तव्य समझा जाता है इसलिये ऐसे स्थण्डिल में मलमूत्र का परित्याग नहीं करे, ____ अब दूसरे ढंग से भी अमुक प्रकार के स्थण्डिल में साधु को मलमूत्र परित्याग का निषेध करते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से स्थण्डिल को जान ले कि इस स्थण्डिल में या स्थण्डिल के निकट में-'इह खलु गाहावई वा' गृहपति-गृहस्थ श्रावक या-'गाहावइ पुत्ता वा' गृहस्थ श्रावक का पुत्र-'कंदाणि वा जाव हरियाणि वा' कन्दों को याने कांदा प्याजों को या यावतू मूलों को ५५ विश्थी सुवासित है सुधित ४२ छ. 'अन्नयरं वा तरप्पगारंसि थंडिलंसि' અથવા અન્ય પ્રકારથી સજાવેલ જાણે તે તેવા પ્રકારના સ્પંડિલમાં સાધુ કે સાધ્વીએ 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' भराभूत्रने त्याग ४२। नडी भई साधुन। નિમિત્તે તૈયાર કરવામાં આવેલ સ્પંડિલમાં જીવહિંસાની સંભાવના હોવાથી તેમાં મલ મત્રનો ત્યાગ કરવાથી સાધુ અને સાધ્વી ને સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી આ રીતના ચંડિલમાં સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુ કે સાર્વીએ મલમૂત્રનો ત્યાગ ન કરે, કેમકે સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાધ્વીનું પરમ કર્તવ્ય મનાય છે. તેથી આવા ઘંડિલમાં મલમૂત્રને ત્યાગ ન કર. હવે પ્રકારાન્તરથી અમુક પ્રકારના સ્પંડિલેડમાં સાધુને મલમૂત્ર ત્યાગ કરવાને નિષેધ परेछ-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभार साधु सने साली 'से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा' ने स्थउसने मेवा प्रा२नुगणे-'इह खलु गाहावइ वा' । २५सभा २५ - सभी पति गृहस्थ श्रा१४ या 'गाहावइपुत्ता वा' अथवा २५ श्रावना पुत्र 'कंदाणि वा जाव हरियाणि वा' होने मेटले जी भार श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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