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________________ आचारांगसूत्रे पादाद्य कुश्चनप्रसारण-पादविहरणरूपान्तिमत्रयाणां परित्यागेन केवलमाघस्यैवोपादानमिति पूर्वेपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरं प्रतिमायां वैशिष्टयं प्ररूपितम् । सम्प्रति-अष्टमाध्ययनवक्तव्यता मुपसंहनाह-'इच्चेयासिं चउण्हं पडिमाणं' इत्येतासां चतसृणां प्रतिमानाम्-अभिग्रह विशेषरूपप्रतिज्ञानाम् 'जाव' यावत्-मध्ये 'पग्गहियतरायं विहरिज्जा' प्रगृहीतान्यतराम्-यां कामपि अन्यतराम प्रतिपद्य विहरेत-तिष्ठेत् किन्तु 'नो किंचि वि वइज्जा' नो किश्चिदपि वदेन्- नो अन्यम् अप्रतिपनप्रतिमं साधुम् निन्देत्, नापि आत्मोत्कर्ष प्रतिपादयेत् 'एयं खलु तस्स भिवखुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' एतत् खलु से कुड्यादिका अबलम्बन ही किया गया है किन्तु अन्तिम दोनों का अर्थात् हाथ पाद वगैरह आकुश्चन प्रसारण और पादविहरण रूप अन्तिम दोनों का ग्रहण नहीं किया गया है और चतुर्थ प्रतिमा में तो कुडयादि आलम्बन एवं हस्तपाद वगैरह का आकुञ्चन प्रसारण और पादविहरण इस प्रकार अन्तिम तीनों का आश्रयण नहीं किया गया है केवल अभिग्रह के द्वारा स्थान मात्र का आश्रयण ही किया गया है इस प्रकार पूर्व पूर्व प्रतिमाकी अपेक्षा उत्तरोत्तर प्रतिमा में विशेषता समझनी चाहिये, अब अष्टम अध्ययन की वक्तव्यता का उपसंहार करते हुए बतलाते हैं-'इच्चे यासिं च उण्हं पडिमागं पग्गहियतरायं विहरिज्जा' इम प्रकार उपर्युक्त चारो प्रतिमाओं के मध्य अर्थात् अभिग्रह विशेषरूप प्रति. ज्ञाओं में से जिस किसी भी एक प्रतिज्ञा रूप अभिग्रह को स्वीकार कर रहना चाहिये किन्तु 'नो किंचिवि वडज्जा' अन्य दूमरे किसी भी अप्रतिपन्न प्रतिमा वाले अर्थात अभिग्रह को नहीं स्वीकार करने वाले साधु की निन्दा नहीं करे और अपनी वडाई प्रशंसा भी नहीं करे, 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणी एवा' इस प्रकार संयम का पालन करना ही संयमशील साधु का और साध्वी का 'सामग्गिय' समग्र आचार माना जाता है अर्थात् संयम का मुख्यरूप से प्रतिपालन करने पर ही साधुता की पूर्णता समझनी चाहिये, जिस संयम આકંચન પ્રસારણ અને પાદવિહરણ આ રીતે છેલલા ત્રણેને આશ્રય કરેલ નથી. કેવળ અભિગ્રહ દ્વારા સ્થાનમાઝનું આયણે જ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પહેલી પહેલી પ્રતિમાના કરતાં પછી પછીની પ્રતિમામાં વિશેષતા સમજવી. ३ मा ।। २५ययनना थनने ७५ डा२ ४२तां सूत्रा२ ४३ छ.-'इच्चेयासिं चउण्ह पडिमाणं' मा प्रमाणे उपरेत यारे प्रतिमामा अर्थात् मालाड विशेष३५ प्रतिज्ञायामांथी 'पगहियतरागं विहरिज्जा' से प्रतिमा३५ मिनी स्वीर કરીને રહેવું જોઈએ, પરંતુ બીજી કઈ પણ અપ્રતિપન્ન પ્રતિમાવાળા અર્થાત્ અભિગ્રહને ન सीवावा साधुना भाट 'नो किंचि वि वइज्जा' नियुत ४४५६ नही तमा पोताना मोटा प्रशस। ५५ ४२वी नही. या प्रमाणे 'एय खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' सयभनुपालन ४२४ सय साधु माले सबीना समय मायार श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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